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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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पुष्टिमार्ग साक्षात् पुरुषोत्तम के शरीर से निकला है । मर्यादामार्ग में ज्ञान तथा श्रवणादि साधनों के द्वारा सायुज्यमुक्ति ही ध्येय होती हैं, परन्तु पुष्टिमार्ग में सर्वात्मना आत्मसमर्पण तथा विप्रयोग-रसात्मिका प्रीति की सहायता से आनन्दधाम भगवान् का साक्षात् अधरामृत का पान ही मुख्य फल है ।(३९३)
मुक्ति- विचारणीय है कि अनुग्रह की दशा में जीव की स्थिति कैसी होती हैं ? आनन्द-स्वरूप भगवान् प्रकट होकर जीव को अपने स्वरूप बल से अपने किसी भी प्रकार के सम्बन्ध मात्र से स्वरूपदान करते हैं, अर्थात् जीव के देह, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण में अपने आनन्द का स्थापन कर उसे अपने स्वभाव में स्थित कर देते हैं । यही जीव की मुक्ति हैं, अर्थात् अन्यथाभाव को, दुःख तथा जडता को छोड़कर स्वरूप से, आनन्दरूप से स्थित होना ही मुक्ति है; भागवत का यही मन्तव्य हैं - मुक्तिर्हित्वाऽन्यथाभावं स्वरुपेण व्यवस्थितिः । (भागवत ) श्री वल्लभाचार्य ने भी अपने सिद्धान्त में मुक्ति का यही रूप माना हैं। इस प्रकार जीव को आनन्दमय बना देना ही प्रभु की 'प्रकृति' है। प्रकृति का अर्थ है-स्वभाव । भगवान् का यह स्वभाव ही है कि वे जीव को अपने समान ही आनन्दमय बना देते हैं । 'पुरुषोत्तम' स्वयं सच्चिदानन्द रूप ठहरे, अतः वे जीवों को भी वही रूप प्रदान कर उन्हें आनन्दमय बना देते हैं। प्रभु का यह भाव 'स्वरूपापत्ति' कहलाता है, ‘स्वरूप' का अर्थ ही है आनन्दमय रूप । इसे ही पाना मुक्ति है।
भक्ति भी दो प्रकार की होती है-'मर्यादाभक्ति' तथा 'पुष्टिभक्ति' । इन दोनों का पार्थक्य भी वल्लभमत में सूक्ष्मरीति से किया गया है। भगवान् के चरणारविन्द की भक्ति मर्यादाभक्ति है, परन्तु भगवान् के मुखारविन्द की भक्ति पुष्टिभक्ति है। मर्यादाभक्ति में फल की अपेक्षा बनी रहती है, परन्तु पुष्टिभक्ति में किसी भी प्रकार के फल की आकांक्षा नहीं रहती । मर्यादाभक्ति से सायुज्य की प्राप्ति होती हैं, परन्तु पुष्टिभक्ति से अभेदबोधन की प्रधानतया सिद्धि होती हैं। इस प्रकार इस क्लेशविपुल संसार से उद्धार पाने का एक ही सुगम उपाय है, पुष्टिमार्ग का अवलम्बन, जो वर्ण, जाति तथा देश आदि के भेदभाव के बिना सब प्राणियों के लिए उपादेय हैं। यह 'पुष्टि' श्रीमद्भागवत का प्रधान रहस्य है। श्री वल्लभाचार्य ने भागवत के आध्यात्मिक तत्त्वों के आधार पर ही इस पुष्टितत्त्व को पुष्ट किया है। इस मत के प्रस्थान-चतुष्टयी' में उपनिषत्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र के साथ श्रीमद्भागवत (समाविभाषा व्यासस्य) की भी गणना है। भागवत का इस सम्प्रदाय में इतना अधिक आदर है कि आचार्य के ग्रन्थों में अणुभाष्य की अपेक्षा 'सुबोधिनी' की ख्याति कहीं अधिक है। श्री विज्ञानभिक्षु श्रीवल्लभाचार्य के समकालीन प्रतीत होते हैं। 'विज्ञानामृत' भाष्य में इन्हों ने "अविभागद्वैत" का प्रतिपादन किया है। इनके मत में जगत् के समस्त पदार्थो से अविभक्त ब्रह्म एक अद्वैत तत्त्व हैं।
(४) (३९४ द्वैताद्वैत मत :- इस मत के प्रवर्तक श्री निम्बकाचार्य ने स्वमत की पुष्टि के लिए "वेदांतपारिजात । (३९३) अनुग्रहेणैव सिद्धिलौकिकी यत्र वैदिकी । न यत्नादन्यथा विघ्नः पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ (प्रमेयरत्नार्णव, पृ-१९) (३९४) द्वैताऽद्वैतवादः (श्रीनिम्बार्काचार्यः) अस्मिन् द्वैताऽद्वैतवादि-श्रीनिम्बार्काचार्यमते व्यवहारकाले जीवेश्वरयोर्भेदः पारमार्थिकावस्थायाञ्चाऽभेदः । तत्रापि द्वैताऽद्वैतयोः समीचीनत्वाऽसमीचीनत्वविषयकप्रश्नविषयाऽवसरे समुपस्थिते द्वैतं पारमार्थिकम्, अद्वैतञ्चास्ति खल्वौपचारिकम्, 'राहोः शिरः' इतिवत् । अस्मिन् मते परमेश्वरः, परमेश्वरपदजन्यबोधविषयतावद् वा ब्रह्म चास्ति सच्चिदानन्द आनन्दकन्दमथुराचन्द्रः श्रीकृष्णचन्द्र एवेति नूनं विभाव्यताम् । १२५० ईसवीये वर्षे स्वास्तित्वसम्पत्तिमान् विद्वान् श्रीनिम्बार्काचार्यः खलु बहून् ग्रन्थान् लिखितवान् । ततः केचन ग्रन्था मया शशिबालागौडेन नामोल्लेखपुरस्सरं प्रदर्श्यन्ते । तथाहि- १. 'ब्रह्मसूत्रभाष्यम्'-वेदान्तपारिजातसौरभ-नामकम् एकम् । २. 'रहस्यषोडशी'-इति द्वितीयं पुष्पम् । ३. 'वेदान्तकामधेनुः' इति चास्ति तृतीयं तदीयं पुष्पम् । एतदनन्तरकालावच्छेदेन १५०० ईसवीये वर्षे श्रीनिवासाचार्यो अस्य निम्बार्कभाष्यस्य
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