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________________ ४५८ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन जगत् :- जगत् के विषय में आचार्य अविकृत परिणामवाद' स्वीकार करते हैं। कनक, कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि आदि के समान निर्गुण सच्चिदानन्दात्मक ब्रह्म ही अविकृत भाव से जगद्रूपेण होता हैं। जिस प्रकार कुण्डलादि-रूपों से परिणत होने पर भी सुवर्ण में किसी प्रकार का विकार नहीं उत्पन्न होता, उसी प्रकार जगद्रूप से परिणत होने पर भी ब्रह्म में किसी प्रकार का विकार नहीं होता। __ श्री वल्लभाचार्य परिणामवाद को ही कार्य-कारण सम्बन्ध के विषय में मानते हैं, परन्तु परिणाम मानने से मूलवस्तु में विकार होना अवश्यंभावी होता हैं।दूध दहीं बनता हैं। दूध का परिणाम दही हैं। यहाँ दूध में विकार उत्पन्न होने से ही दही जैसा परिणाम उत्पन्न होता हैं, परन्तु जगत् की सृष्टि के विषय में यह नियम कथमपि नहीं माना जाता। ब्रह्म से जगत् का परिणाम होता हैं, परन्तु ब्रह्म में किसी प्रकार का परिवर्तन या विकार नहीं उत्पन्न होता। श्री वल्लभाचार्य इसीलिए अपने इस विशिष्ट मत को 'अविकृत परिणामवाद' के नाम से पुकारते हैं। कार्यकारण के विषय में उनकी यह नई धारणा श्रीमद्भागवत की मान्यता के अनुसार है । भागवत ने सुवर्ण का उदाहरण देकर इस तत्त्वको समझाया हैं। (३९१) सोने से जितने भी गहने (अँगूठी, कुण्डल आदि आदि) तथा पदार्थ बनते हैं उनमें सोना सदा अपने अविकृत रूप में बना रहता हैं। समस्त सुनहले पदार्थों के आदि, अन्त तथा मध्य में सुवर्ण की प्राप्ति होती हैं और वह भी बिना किसी विकारी रूप में । इसी प्रकार ब्रह्म भी नाना नामों तथा रूपों के भीतर एकही प्रकार से अविकत रूप में विद्यमान रहता हैं। यह जगत भगवान का ही आकार हैं। श्रति तथा पराण दोनों एक ही तत्त्व के बोधक हैं। उपनिषद् कहती हैं-सर्वं खल्विदं ब्रह्म, अर्थात् सम्पूर्ण जगत् ही ब्रह्ममय हैं। भागवत अपने मंगलश्लोक में ही इस तत्त्व का सुन्दर प्रतिपादन करता हैं। अतः जगत् को भगवान् का रूप मानना सर्वथा उचित हैं। कहना न होगा कि भगवान् का आकार होने से यह जगत् भी सर्वथा नित्य सिद्ध होता हैं । आचार्य जगत् की उत्पत्ति तथा विनाश को नहीं मानते। वे आविर्भाव तथा तिरोभाव के पक्षपाती हैं। अनुभवयोग्य होने पर जगत् का आविर्भाव होता हैं और अनुभव योग्य न होने पर जगत् का तिरोभाव होता हैं । (३९२) वल्लभ मत में जगत् और संसार में एक विलक्षण पार्थक्य स्वीकृत किया जाता हैं। ईश्वरेच्छा के विलास से सदंश से प्रादुर्भूत पदार्थ को 'जगत्' कहते हैं, परन्तु पञ्चपर्वा अविद्या के द्वारा जीव के द्वारा कल्पित ममतारूप पदार्थ की संज्ञा संसार' हैं। अविद्या के पाँच पर्व होते हैं -स्वरूपाज्ञान, देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास तथा अन्तःकरणाध्यास । इस अविद्या की सत्ता रहने पर संसार हैं। अतः ज्ञान के उदय होने पर 'संसार' का तो नाश हो जाता हैं, परन्तु ब्रह्मरूप होने के कारण 'जगत्' का विनाश कभी सम्भव नहीं हैं। वह तो ब्रह्म तथा जीव के समान ही नित्य पदार्थ है। पुष्टिमार्ग : भगवान् की प्राप्ति का सुगम उपाय केवल भक्ति ही है। भगवान् के त्रिविध रूप के अनुसार मार्ग भी तीन हैं। आधिभौतिक कर्ममार्ग है; ज्ञानमार्ग आध्यात्मिक हैं । ज्ञान के बल पर ज्ञानी अक्षरब्रह्म को ही प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु परब्रह्म, सच्चिदानन्द की उपलब्धि भक्ति के ही द्वारा होती हैं। आचार्य का आचारमार्ग पुष्टिमार्ग' कहलाता हैं। भागवत में पुष्टि या पोषण का अर्थ 'भगवान् का अनुग्रह' है ( पोषणं तदनुग्रहःभाग०२।१०)। अतः भगवदनुग्रह को मुक्ति का प्रधान कारण मानने के कारण यह मार्ग पुष्टिमार्ग कहलाता हैं। यह मार्ग मर्यादामार्ग से नितान्त विलक्षण है। मर्यादामार्ग वैदिक हैं, जो अक्षरब्रह्म की वाणी से उत्पन्न हुआ हैं, परन्तु (३९१) यथा सुवर्णं सुकृतं पुरस्तात् पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्यमयस्य । तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं नानापदेशेरहमस्य तद्वत् ॥ (श्रीमद् भागवत्)(३९२) अनुभवविषयत्वयोग्यता आविर्भावः तदविषयत्वयोग्यता तिरोभावः । (विद्वन्मण्डन, पृ-७) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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