SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट -१, वेदांतदर्शन अंश पूर्ण मात्रा में विद्यमान रहता हैं, तब वह परब्रह्म या पुरुषोत्तम कहलाता हैं। यह 'ब्रह्म का आधिदैविक रूप' होता हैं । ब्रह्म के इन दोनों रूपों की प्राप्ति का साधन भिन्न ही होता हैं। ज्ञानीजन अपने विशुद्धज्ञान के द्वारा अक्षर-ब्रह्म की प्राप्ति करते हैं परन्तु पुरुषोत्तम की प्राप्ति अनन्या भक्ति के ही द्वारा हो सकती हैं। इसलिए गीता (८।२२ ) कहती हैं कि परब्रह्म अनन्या भक्ति के द्वारा ही प्राप्त होता हैं। पुरुषोत्तम ब्रह्म ही परब्रह्म के नाम से पुकारे जाते हैं और ये ही निरतिशय सर्वज्ञ ब्रह्म हैं । ४५७ भगवान को जब रमण करने की इच्छा उत्पन्न होती हैं, तब वे अपने आनन्दादि गुण के अंशो को तिरोहित कर स्वयं जीवरूप ग्रहण कर लेते हैं। इस व्यापार में क्रीडा की इच्छा ही प्रधान कारण हैं, माया का सम्बन्ध तनिक भी नहीं रहता । ऐश्वर्य के तिरोधान से जीव में दीनता उत्पन्न होती हैं और यश के तिरोधान से हीनता । श्री के तिरोधान से वह समस्त विपत्तियों का आस्पद होता हैं; ज्ञान के तिरोधान से देहादिकों में आत्मबुद्धि रखता हैं तथा आनन्द के तिरोधान से दुःख प्राप्त करता हैं । (पराभिध्यानात्तु ब्र. सू. ३ । २१५ पर अणुभाष्य ) ब्रह्म से जीव का उदय अग्निस्फुलिंगवत् हैं। यह व्युच्चरण उत्पत्ति नहीं हैं। अतः व्युच्चरण होने पर भी जीव की नित्यता का ह्रास नहीं होता। वल्लभ मत में भी जीव ज्ञाता, ज्ञानस्वरूप तथा अणुरूप हैं । भगवान् के अविकृत सदंश से जड का निर्गमन और अविकृत चिदंश से जीव का निर्गमन होता हैं । जड के निर्गमन काल में चिदंश तथा आनन्दांश दोनों का तिरोधान रहता हैं, परन्तु जीव के निर्गमन-काल में केवल आनन्दांश का ही तिरोभाव रहता हैं (प्रमेयरत्नार्णव, पृ० ७-९)। जीव नित्य हैं । जिस प्रकार अग्नि से चिनगारियाँ (स्फुलिंग) छिटक कर निकलती हैं; उसी प्रकार जीव ईश्वर से निकलता हैं। इस निकलने से (व्युच्चरण से) जीव की नित्यता में किसी प्रकार की कमी नहीं होती। वह उसी भाँति नित्य बना रहता हैं । अग्नि-स्फुलिंग का दृष्टान्त जीव के निर्गमन के लिए श्रुति तथा भागवत पुराण दोनों में उपलब्ध होता हैं। श्री वल्लभाचार्य परिणामवाद को मानते हैं। इनकी दृष्टि में जीव तथा जगत् दोनों परब्रह्म के परिणामरूप हैं, परन्तु परिणाम होने से ब्रह्म में किसी प्रकार का विकार नहीं होता । वह परिणामी नहीं होता, क्योंकि उसमें किसी प्रकार का विकार नहीं होता । भगवान् में तीन अंश हैं - सत्, चित् और आनन्द । इनमें कोई भी अंश विकार नहीं प्राप्त करता । ब्रह्म के अविकृत (विकार न पानेवाले ) 'सत्' अंश से भौतिक पदार्थो का उदय होता हैं और अविकृत 'चित्' अंश से जीवों का आविर्भाव होता हैं । जब भौतिक पदार्थो का उदय होता हैं, तब ब्रह्म के दोनों अंश - चित् और आनन्द अंश छिपे रहते हैं। केवल 'सत्' अंश ही प्रकट रहता हैं और इसलिए इस अंश से ही भौतिक पदार्थो का जन्म होता हैं। जीव के उदयकाल में ब्रह्म में केवल आनन्दअंश ही तिरोहित रहता हैं, अन्य दो अंश विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म से सृष्टि की प्रक्रिया सम्पन्न होती हैं। जीव अनेक प्रकार का होता हैं- (१) शुद्ध, (२) मुक्त, (३) संसारी । स्फुलिङ्गवत् व्युच्चरण के समय आनन्दांश का तिरोधान होने पर अविद्या से सम्बन्ध होने के कारण पूर्व जीव 'शुद्ध' कहलाता हैं । अविद्या के साथ सम्बन्ध रखने वाला जीव 'संसारी' कहलाता हैं । यह भी दो प्रकार के होते हैं-दैव और आसुर । दैव जीव भी मर्यादामार्गीय और पुष्टिमार्गीय भेद से भिन्न-भिन्न होता हैं। मुक्त जीवों में भी कतिपय जीवन्मुक्त होते हैं और कतिपय मुक्त । जीव सच्चिदानन्द भगवान् से नितान्त अभिन्न हैं । संसारी दशा में जब पुष्टिमार्ग के सेवन से भगवान् का नैसर्गिक अनुग्रह जीवों के ऊपर होता हैं; तब उसमें तिरोहित आनन्द अंशो को प्रकटित कर स्वयं सच्चिदानन्द बन जाता हैं और भगवान् से अभेद प्राप्त कर लेता हैं। 'तत् त्वमसि' महावाक्य इसी अद्वैत सत्ता को प्रतिपादित करता हैं । जिस प्रकार सुवर्ण के कटक-कुण्डलादि अंश सुवर्ण से अभिन्न हैं, उसी प्रकार चिदंश जीव भी ब्रह्म से अभिन्न हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy