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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
क्रीडा करते हैं और अन्त में सब सृष्टि को अपने में तिरोहित कर देते हैं। इस प्रकार जगत् का आविर्भाव तथा तिरोभाव भगवान् की लीला के कारण होता है अन्यथा उस पूर्णकाम के लिए ऐसी कोई कामना ही शेष नहीं हैं जिसके लिए वह जगत् की सृष्टि करता । यह जगत् ब्रह्मरूप हैं और ब्रह्म के समान ही नित्य हैं। अद्वैतियों के समान यह जगत् मायिक तथा असत्य नहीं हैं ।
इस प्रकार लीला को छोडकर इस ब्रह्माण्ड के उदय का कोई भी अन्य प्रयोजन नहीं हैं। लीला का रहस्य श्री वल्लभाचार्य ने अपनी सुबोधिनी - तृतीय स्कन्ध में बडी सुन्दरता से समझाया हैं। उनका महत्त्वपूर्ण कथन हैं - लीला विलास की इच्छा का नाम हैं। कार्य के बिना ही यह केवल व्यापारमात्र होता हैं, अर्थात् इस कृति के द्वारा बाहर कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं होता । उत्पन्न किये गये कार्य में किसी प्रकार का अभिप्राय नहीं रहता; कोई कार्य उत्पन्न हो गया, तो होता रहे, इसमें न कर्ता का कोई उद्देश्य रहता हैं, न कर्ता में किसी प्रकार का प्रयास ही उत्पन्न होता हैं। जब अन्तःकरण आनन्द से पूर्ण हो जाता हैं तब उसके उल्लास से कार्य के उदय के समान ही कोई क्रिया उत्पन्न होती हैं। यही भगवान् की लीला हैं। सर्ग-विसर्ग आदि के समान भक्ति, अनुग्रह या पुष्टि भी भगवान् की लीला हैं। मर्यादा मार्ग में भगवान् साधन- परतन्त्र रहते हैं, क्योंकि इस मार्ग में भगवान को अपनी बँधी हुई मर्यादाओं की रक्षा करना अभीष्ट होता हैं । पुष्टिमार्ग में भगवान् किसी साधन के परतन्त्र न होकर स्वयं स्वतन्त्र होते हैं । अनुग्रह भी भगवान् की नित्यलीला का विलास हैं ।
जीव के ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही भगवान् का इस भूतल पर आविर्भाव होता हैं । जीव मात्र को निरपेक्ष मुक्ति देने के लिए ही भगवान् का अवतार होता हैं । भगवान् सब ऐश्वर्यों से सम्पन्न, अपराधीन तथा सर्वनिरपेक्ष हैं। तब उनके अवतार लेने का प्रयोजन ही क्या हैं ? दुष्टों के दलन तथा शिष्टों के रक्षण का कार्य तो अन्य साधनों से भी हो सकता हैं । तब वे अवतार क्यों लेते हैं ? इसके उत्तर में भागवत का कहना हैं कि, अव्यय तथा निर्गुण भगवान् का प्रकटीकरण इस जगत् में मनुष्यों को मुक्ति प्रदान करने के लिए ही होता हैं। [नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृपः । अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ - भागवत - १० / २९/१४] मनुष्यों को साधन निरपेक्ष मुक्ति का दान ही भगवान् के प्राकट्य का प्रयोजन हैं। इसका अभिप्राय यह है कि बिना किसी साधना की अपेक्षा रखते हुए भी भगवान् साधक को स्वतः अपनी लीला के विलास एवं अपने अनुग्रह से मुक्ति प्रदान करते हैं। [सुबोधिनी] भगवान् की यह लीला ही ठहरी। ज्यों ही जीव भगवान् के शरणापन्न हो जाता हैं और शरण-मन्त्र का उच्चारण करता हैं, भगवान् की भक्ति का उदय हो जाता हैं। फलस्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण की विमल दया की धारा उस साधक के ऊपर झरने लगती हैं। यही 'पुष्टि' का रहस्य हैं । शक्तितन्त्रो में जिस तत्त्व को 'शक्तिपात' के नाम से पुकारते हैं वही तत्त्व इस पुष्टिमार्ग में 'पुष्टि' के नाम से प्रख्यात हैं।
अक्षरब्रह्म क्षरपुरुष (प्रकृति) से श्रेष्ठ हैं, परन्तु परब्रह्म उससे भी श्रेष्ठ हैं (गीता ८।२१), अक्षर ब्रह्म में आनन्दांश का किञ्चिन्मात्र में तिरोधान रहता हैं, पर पुरुषोत्तम आनन्द से परिपूर्ण रहता हैं। क्षर से अतीत तथा अक्षर उत्तम होने के कारण परब्रह्म को गीता 'पुरुषोत्तम' के नाम से पुकारती हैं । अक्षरब्रह्म विशुद्धज्ञानैकगम्य हैं, परन्तु 'पुरुषोत्तम' की प्राप्ति तो केवल 'अनन्यभक्ति' के द्वारा ही हो सकती हैं। श्री वल्लभाचार्य के सिद्धांतो पर श्रीमद्भागवत तथा भगवद् गीता का विशेष प्रभाव पड़ा हैं । ब्रह्म के तीनों रूपों की कल्पना गीता के अष्टम तथा पंचदश अध्याय के वर्णन के अनुसार हैं। ब्रह्म के 'आधिभौतिक रूप का ही दूसरा नाम हैंक्षर पुरुष, अर्थात् भौतिक तत्त्व (प्रकृति)। यह भी ब्रह्म के रूप होने से उसी के समान वास्तव तथा नित्य हैं । जब थोड़ी मात्रा में आनन्द अंश तिरोहित हो जाता हैं, तब उसे 'अक्षर ब्रह्म' कहते हैं और जब आनन्द का
ब्रह्म
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