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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४६१ नहीं करता। जीव इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता हैं और इसलिए वह भोक्ता भी हैं। आत्मा के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध स्वस्वामिभाव हैं। जीव है स्वामी तथा इन्द्रियाँ हैं उसके वश में रहनेवाली (स्व) । अत इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत समस्त विषय जीव के लिए ही भोग्य हैं । इन्द्रियाँ तो इस कार्य में केवल करणमात्र हैं। यह जीव कर्ता तथा भोक्ता दोनों होता हैं। जीव अपने ज्ञान तथा भोग की प्राप्ति के लिए स्वतन्त्र न होकर ईश्वर पर आश्रित रहता हैं। अतः चैतन्यात्मक तथा ज्ञानाश्रय रूप से ईश्वर के समान होने पर भी जीव में एक विशेष भेदक गुण रहता है-नियम्यत्व । ईश्वर नियन्ता हैं, जीव नियम्य है। ईश्वर के वह सदा अधीन है, मुक्त दशा में भी वह ईश्वर पर आश्रित रहता है । जीव नियम्य है तथा ईश्वर नियन्ता है। इसका कारण यह है कि जीव परतन्त्र होता है और ईश्वर सर्वदा स्वतन्त्र होता है। स्वतन्त्र होने से ईश्वर प्रत्येक दशा में नियन्ता होता है; अर्थात् वह जैसा चाहे वैसा बर्ताव जीव के साथ कर सकता है। जीव अपने सब कार्यो के लिए परतन्त्र है तथा ईश्वर पर आश्रित रहता है। यहाँ तक कि जीव का कर्तृत्व भी उसके वश की बात नहीं है। नियन्ता परमात्मा अपनी इच्छा के अनुसार जीव में कर्तृत्व उत्पन्न करता है। इसलिए श्रुति कहती है कि ईश्वर मनुष्यों के हृदय में प्रवेश कर उनका शासन या नियमन करता है और गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझसे जीवों को 'स्मृति और ज्ञान होता हैं' (मत्तः स्मृत्तिर्ज्ञानमपोहनं च)-ये दोनों वचन जीव की परतन्त्रता तथा ईश्वर की स्वतन्त्रता के बोधक हैं । जीव परिमाण में अणु है-ऐसी स्थिति में संशय उत्पन्न होता है कि यह अणु होने पर शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो में होनेवाले सुख-दुःख का अनुभव किस प्रकार करता हैं ? इसका समाधान यह हैं कि जीव में व्यापक ज्ञानलक्षण गुण सदा विद्यमान रहता है और इसी गुण की सहायता से जीव सकल शरीर में होने वाले सुख-दुःख का अनुभव सदा किया करता है। वह रहता तो है हृदय में ही, परन्तु वहीं से वह शरीर के अन्य भागों में उत्पन्न सुख-दुःख का अनुभव किया करता है। एक उदाहरण से इसे देखिए-चन्दन का तिलक तो ललाट के ऊपर रहता हैं, परन्तु वह वहीं से समग्र शरीर को विभूषित करता है; दीपक घर के एक कोने में रक्खा जाता हैं, परन्तु वहीं से यह समस्त घर को प्रकाशित करता हैं। अणुरूप जीव की भी ठीक यही दशा है। जीव प्रतिशरीर में भिन्न है और इसलिए वह अनन्त माना जाता हैं। इस प्रकार जीव परिमाण में अणु तथा संख्या में नाना हैं। वह हरि का अंशरूप हैं । अंश शब्द का अर्थ अवयव-विभाग नहीं हैं, प्रत्युत कौस्तुभ के अनुसार अंश का अर्थ शक्तिरूप हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान् हैं, अतः वह अंशी हैं; जीव उसका शक्तिरूप हैं, अत:वह अंशरूप हैं। अघटनघटना-पटीयसी, गुणमयी, प्रकृतिरूपिणी माया से आवृत होने के कारण जीव का धर्मभूत ज्ञान संकुचित हो जाता हैं। भगवान् के प्रसाद से ही जीव के सच्चे स्वरूप का ज्ञान हो सकता हैं । मुमुक्षु ( मुक्ति का इच्छुक) तथा बुभुक्षु (विषयानन्द का इच्छुक) भेद से बद्ध जीव दो प्रकार का हैं। क्लेशों से पीड़ित होने पर विरक्त तथा मुक्ति चाहनेवाला जीव मुमुक्षु कहलाता हैं, परन्तु विषय के आनन्द का इच्छुक जीव बुभुक्षु कहलाता हैं। बद्ध जीव के दो प्रकारों के समान मुक्त जीव भी दो प्रकार का होता है-(१) नित्यमुक्त तथा (२) मुक्त। जो जीव गर्भ, जन्म, जरा, मरण आदि प्राकृत दुःखों के अनुभव से शून्य है और नित्य भगवान् के स्वरूप का दर्शन करता हुआ भजनानन्द में मस्त रहता है वह नित्य मुक्त माना जाता हैं। भगवान् के पार्षद विश्वक्सेन तथा गरुड आदि इसी श्रेणी के जीव हैं । जो जीव अविद्या से उत्पन्न दुःखों के अनुभव से रहित होता है वह केवल मुक्त कहलाता हैं। मुक्त पुरुषों की भी अनेक श्रेणियाँ आकर ग्रन्थों में वर्णित हैं। मुक्त पुरुषों में कुछ तो ऐसे हैं जो निरतिशय आनन्दरूप भगवद्भाव को पानेवाले हैं और दूसरे मुक्त जीव अपने आत्मज्ञान से स्वरूपानन्द की प्राप्ति करनेवाले होते हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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