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________________ ४४८ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ईश्वर तथा अंश-सम्बन्धी प्रश्न की मीमांसा के लिए श्रीरामानुजाचार्य ने द्रव्य तथा गुण अथवा द्रव्य तथा अन्य द्रव्य में विद्यमान रहनेवाला 'अपृथक्-सिद्धि' नामक सम्बन्ध स्वीकृत किया हैं । यह सम्बन्ध न्यायवैशषिकसम्मत समवाय के अनुरूप होने पर भी उससे भिन्न हैं। समवाय बाह्य सम्बन्ध हैं, परन्तु अपृथक्सिद्धि आन्तर सम्बन्ध हैं । चिदचित् का सम्बन्ध ईश्वर के साथ शरीर तथा आत्मा के परस्पर सम्बन्ध के नितरां अनुरूप हैं। शरीर वही हैं जिसे आत्मा धारण करता हैं, नियमन करता हैं तथा अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कार्य में प्रवृत्त करता हैं । ठीक इसी प्रकार ईश्वर चिदचित् को आश्रित करता हैं तथा कार्य में प्रवृत्त करता हैं। इनमें जो प्रधान होता हैं वह नियामक होता हैं तथा 'विशेष्य' कहलाता हैं; जो गौण होता है वह नियम्य होता है तथा 'विशेषण' कहलाता हैं । यहाँ नियामक तथा प्रधान होने से ईश्वर विशेष्य हैं । नियम्य अथ च अप्रधान होने के कारण जीव तथा जगत विशेषण हैं। आत्मभूत ईश्वर के चिदचित् शरीर हैं, विशेष्यभूत ईश्वर के चिदचित् विशेषण हैं। विशेषण पृथक् न होकर विशेष्य के साथ सदैव सम्बद्ध रहते हैं। अतः विशेषणों से युक्त विशेष्य अर्थात् विशिष्ट की एकत्व कल्पना युक्तियुक्त हैं। ब्रह्म अद्वैतरूप हैं, क्योंकि अंगभूत चिदचित् की अंगों से पृथक् सत्ता सिद्ध नहीं होती। ईश्वर सकल जगत् का निमित्तोपादान कारण हैं। रचना का प्रयोजन केवल लीला हैं, अन्य कुछ नहीं । बालक जिस प्रकार खिलौनों से खेलता हैं, उसी प्रकार वह लीलाधाम भगवान् जगत् को उत्पन्न कर खेल किया करता हैं । संहारदशा में लीला की विरति नहीं होती, क्योंकि संहार भी उसकी एक लीला ही हैं। जीव और जगत् दोनों नित्य पदार्थ हैं । अतः सृष्टि और प्रलय से तात्पर्य इनके स्थूल रूप और सूक्ष्म रूप धारण करने से हैं। प्रलयकाल में जीव-जगत् से सूक्ष्मरूपापन्न होने पर सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्ट ईश्वर 'कारणावस्थ ब्रह्म' कहलाता हैं और सृष्टिकाल में स्थूल रूप धारण करने पर स्थूल-चिदचिद् विशिष्ट ईश्वर कार्यावस्थ ब्रह्म' कहलाता हैं। वह किसी भी अवस्था में निर्विशेष नहीं रह सकता। अद्वैतपरक श्रुतियों का तात्पर्य इसी कारणावस्थ ब्रह्म से हैं । ब्रह्म समस्त हेय गुणों से शून्य हैं । इसलिए वह 'निर्गुण' कहलाता हैं। एकमेवाद्वितीयम्'-आदि वाक्यों का विषय वही अव्याकृत ब्रह्म हैं, जिसमें प्रलयकाल में जीव तथा जगत् सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं । विशिष्टाद्वैतवादियों का यही कथन हैं। विशिष्टाद्वैत मत में ऐसी कभी दशा ही नहीं होती जब कि ब्रह्म विशिष्टता से हीन हो। प्रलयकाल में विषयों के अभाव में जीव तथा जगत् दोनों सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं और उस समय भी ब्रह्म इन सूक्ष्म जीव तथा जगत् से (चित् तथा अचित् से) विशिष्ट बना ही रहता हैं । सृष्टिदशा में ये दोनों व्यक्त रूप अर्थात् स्थूल रूप धारण कर लेते हैं। फलतः इस अवस्था में ब्रह्म स्थूल चित् तथा अचित् से विशिष्ट रहता हैं। उसमें 'विशेष' रहता ही हैं, वह कभी भी निर्विशेष नहीं होता। 'विशिष्टाद्वैत' नाम में भी इसी सिद्धान्त की ओर संकेत हैं। यहाँ केवल ब्रह्म का अद्वैत नहीं होता (जैसा श्री शंकराचार्य मानते हैं); प्रत्युत विशिष्ट (चित्-अचित् से विशिष्ट) ब्रह्म का ही अद्वैत होता हैं, अर्थात् चित्-अचित् जिसमें अंश रूप में विद्यमान रहते हैं, ऐसा विशिष्ट ब्रह्म का अंशी रूप अद्वैत रूप में विद्यमान रहता हैं । शंकर मत से इसीलिए रामानुज वेदान्त की भिन्नता दिखलाने के लिए यह मत 'विशिष्टाद्वैत' के नाम से प्रख्यात हैं। भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने तथा जगत् की रक्षा करने के पवित्र उद्देश्य से ईश्वर पाँच प्रकार के (पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी, तथा आर्चावतार) रूपों को धारण करता हैं । ईश्वर के इस पञ्चविध रूप की कल्पना श्री रामानुजाचार्य ने प्राचीन भागवत सम्प्रदाय से ग्रहण की। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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