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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन अंश- अंशी विचार : ईश्वर के साथ चित् (जीव) तथा अचित् (भूत) का सम्बन्ध क्या हैं ? यदि ईश्वर अंशी माना जाता हैं तो ये दोनों उसके अंश कैसे हैं ? यदि भौतिक विकारों के होने पर अचित् अंश में विकार उत्पन्न होता हैं, तब तो ईश्वर को भी विकारी मानना पडेगा ? उसी प्रकार अंशभूत जीव के दोषों से ईश्वर को भी दोषी होना ठहरता हैं । अंशभूत जीव में नाना दोष होते हैं, अत: अंशी ब्रह्म में भी ये दोष आरोपित अवश्यमेव किये जा सकते हैं ? फलतः ब्रह्म विकारी तथा दोषी सिद्ध होता हैं। इस विषम स्थिति से बचने के लिए श्री रामानुजाचार्य ने दोनों के परस्पर सम्बन्ध की मीमांसा कर सिद्धान्तरक्षा का दृढतर उपाय किया हैं । वे दोनों के सम्बन्ध को आत्मा तथा शरीर के सम्बन्ध के सदृश मानते हैं-जिस प्रकार आत्मा शरीर को भीतर से नियमित करता चलता हैं, उसी प्रकार ईश्वर चित् अचित् को भीतर से नियमित करता हैं और इसलिए वह 'अन्तर्यामी' कहलाता हैं। जिस प्रकार शरीर यदि अन्धा या लँग जाय, तो आत्मा इन दोषों से स्पृष्ट नहीं होता, उसी प्रकार चित्-अचित् में दोषों के राजा प्रजा के सम्बन्ध के साथ तुलना करते हैं- प्रजा के दुःखों से या सुखों से जिस प्रकार राजा प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार जीवों के दुःखों ईश्वर प्रभावित नहीं होता । वह अविकारी शुद्ध सत्ता हैं, जिसमें चित्-अचित् अंशरूप से विद्यमान रहकर भी अपनी क्रिया से उसे परिणामी नहीं बना सकते । ४४९ परन्तु विचारणीय तथ्य यह है कि, ऊपर की दोनों उपमायें क्या ईश्वर और चिदचित् के सम्बन्ध को पूरी तरह से समझाती हैं ? ईश्वर हैं अंशी और चिदचित् उसके अंश हैं, किन्तु राजा - प्रजा में तो अंशांशी सम्बन्ध होता नहीं । ऐसी स्थिति में दोनों का सम्बन्ध कैसे सुसंगत बैठता है ? श्री रामानुजाचार्य जगत को विशेषण तथा ईश्वर को विशेष्य मानते हैं। यदि यह ठीक हैं तो जगत् के दोषों के आरोपण से ईश्वर बच नहीं सकता। श्री रामानुजाचार्य की भी अपने सिद्धान्त में इस परस्पर विरोध की सत्ता का आभास था, क्योंकि इन्होंने एक स्थान पर स्पष्टतः स्वीकार किया हैं कि ब्रह्म यथार्थ रूप में अपरिणामी हैं और वह जगत के विकारों से विकृत नहीं होता (श्रीभाष्य २/१/ १४) । इसका फल यह निकलता है कि विकारशील अचित्, ईश्वर का यथार्थ आन्तरिक स्वरूप न होकर केवल बाह्य रूप हैं । इस वस्तु स्थिति से बचने का जो भी उपाय किया जाय, इतना तो सत्य प्रतीत होता है कि परिणामी अचित् को ईश्वर का आन्तरिक अंश मानना और साथ ही साथ ईश्वर में परिणाम न मानना ऐसा विरोधाभास हैं जो श्री रामानुजाचार्य के मूल सिद्धान्त को बहुत कुछ दुर्बल बनाता हैं । इस प्रकार श्री रामानुजाचार्य की ईश्वरकल्पना शांकर मत की कल्पना से भिन्न हैं । शांकर मत में (१) एक अद्वितीय ब्रह्म तत्त्व हैं, इसके अतिरिक्त दृश्यमान प्रपञ्च कुछ नहीं हैं, (२) ब्रह्म सजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेद से शून्य हैं, (३) ब्रह्म निर्विशेष तथा निर्गुण हैं, परन्तु श्री रामानुजाचार्य मत में (१) चिदचित् रूप शरीरविशिष्ट ब्रह्म सत्य हैं, इसके तथा उसके शरीर ( जीव और जगत् ) से भिन्न अन्य कुछ भी नहीं हैं; (२) सजातीय-विजातीय भेद से शून्य होने पर भी वह स्वगत भेद से शून्य नहीं हैं; (३) ब्रह्म सविशेष ही हैं, स्वभाव से ही उसमें कल्याणकारी गुणों की सत्ता हैं, प्रकृत हेय गुणों से वह सर्वथा हीन हैं। शांकर मत में (४) ब्रह्म ही मायोपाधि से ईश्वर और अविद्योपाधि से जीव कहलाता हैं, परन्तु जड जगत प्रातिभासिक (मिथ्या ) ही हैं । अतः तत्त्व एक ही हैं। श्री रामानुजाचार्य के अनुसार ( ४ ) ब्रह्म ही ईश्वर हैं, उसके शरीरभूत जीव और जगत् उससे भिन्न तथा नित्य हैं । अतः पदार्थ तीन हैं, एक नहीं । जीव :- अब 'चित्' के स्वरूप पर दृष्टिपात कीजिए । वह देह, इन्द्रिय, मन, प्राण और बुद्धि से विलक्षण, अनन्त, आनन्दरूप, नित्य, अणु, अव्यक्त, अचिन्त्य, निरवयव, निर्विकार तथा ज्ञानाश्रय हैं। ज्ञान के बिना स्वयमेव चित् प्रकाशित होने से वह अजड हैं। सुषुप्ति के अनन्तर जागने पर सुखपूर्वक निद्रित होने का For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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