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________________ ४४६ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन इस "माया'' के कारण होती हैं। जैसे अग्नि में दाहकशक्ति हैं, वैसे माया ब्रह्म की एक शक्ति ही हैं। वह सत् भी नही हैं, असत् भी नहीं हैं, सदसद् भी नहीं हैं और सदसद्भिन्न भी नहीं हैं। सारांश में माया 'अनिर्वचनीय' हैं। वह सत्त्व, रजस् और तमस् : ये तीन गुणात्मक हैं और ज्ञान की विरोधी हैं। इस माया के द्वारा जगत की उत्पत्ति में कोई वास्तविकता नहीं हैं, परन्तु उसके द्वारा उत्पन्न होता यह जगत एकमात्र भ्रम हैं, अथवा स्वप्नसमान हैं। जो सत्य लगता हैं, परन्तु उसकी सत्ता रस्से में सर्प का ज्ञान हो जाता हैं, इससे अधिक नहीं हैं। अर्थात् भ्रम हैं, इस सिद्धांत को “विवर्तवाद" कहा जाता हैं। श्रीशंकराचार्य के मत में जब जीव अविद्या (माया) के स्वरुप को समज जाता हैं, तब अपनी इन्द्रिय और मन से पृथक् पूर्ण चैतन्य सत्ता अनुभव करने लगता हैं । परन्तु अविद्या के अध्यारोप की निवृत्ति के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाध्यनुष्ठान की आवश्यकता हैं और चारों का जिन्हों ने अच्छी तरह से अभ्यास किया हैं, ऐसे ब्रह्मविद् गुरु के पास निरंतर श्रवणादि का अनुष्ठान करने से उसके भ्रम की निवृत्ति होती हैं और अद्वैत का अनुभव होता हैं और वह शुद्ध आत्मस्वरुप में स्थित हो जाता हैं । यही अद्वैत सिद्धांत के अनसार मक्ति की व्यवस्था हैं। (१)नित्यानित्य वस्तु का विवेक, (२) इहलोक परलोक संबंधी फल के उपभोग का विराग, (३) शम, दम, उपरति (कर्मत्याग), तितिक्षा (सहनशीलता), समाधि और श्रद्धा :- ये छ गुणो की प्राप्ति और (४) मुमुक्षुता = मोक्ष की ईच्छा : ये चार गुणो के सेवनपूर्वक श्रवणादि के सेवन हो तो भ्रम की निवृत्ति के द्वारा अद्वैत का अनुभव होता हैं -इस अनुसार श्रीशंकराचार्य का "केवलाद्वैत' सिद्धांत का सारांश हैं। (अत्र उल्लेखनीय हैं कि, निर्विशेषाद्वैत के सिवा बाकी के सभी वेदांत के मत श्री बलदेव उपाध्याय कृत 'भारतीय दर्शन' आदि पुस्तक से संकलित किये गये हैं।) (२)विशिष्टाद्वैत मत ३८९): श्रीशंकराचार्य के निविशेषाद्वैत के सिद्धांत के सामने श्रीरामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत सिद्धांत की स्थापना की हैं। जो "श्रीभाष्य" में इस सिद्धांत की पुष्टि की हैं। उसके मतानुसार “माया-मिथ्यात्ववाद" और "अद्वैतवाद" दोनों गलत हैं। ब्रह्म से अतिरिक्त जीव और जड जगत अर्थात् चित् और अचित् भी नित्य और स्वतंत्र तत्त्व हैं। यद्यपि वे ब्रह्म के ही अंश हैं और ब्रह्म उसमें अन्तर्यामी रुप से रहते हैं। वे दोनों तत्त्व ही ब्रह्म की विशेषता हैं। जो प्रलयकाल में ब्रह्म के अंदर सूक्ष्मरुप से रहते हैं और विश्व उत्पत्ति के अवसर पर स्थूलरुप में प्रकट हो जाते हैं। इसलिए उसका (३८९) विशिष्टाद्वैतमतम्। विशिष्टाद्वैतमित्यस्य केनचिद् विशेषणेन विशिष्टोऽद्वैतरूप ईश्वर एव विशिष्टाऽद्वैतपदाभिधेयतां गच्छति । प्रकृते च जीवजगद्रपविशेषणेन विशिष्टः ईश्वरो वर्तते । स च सर्वेषामाधारभूतः, जगन्नियन्ता, सर्वशक्तिमान्, अनादिरनन्तश्च, एवम्भूतो राम एव चास्ति ईश्वरः । रमन्ते योगिनोऽस्मिन्नसौ रामः, स एव चाष्टविधैश्वर्यशालित्वादीश्वरः परमेश्वर इति च गीयते । अस्य च विशिष्टाद्वैतमतस्याऽऽदिप्रवर्तकत्वेन जन्मदाता चास्ति साक्षात् स्वयं श्रीरामानुजाचार्यः । अयञ्च श्रीरामानुजाचार्यः ११०० ईसवीये वर्षे स्वकीयां स्थितिं लभमानः 'श्रीभाष्य'स्य रचनां कृतवान् इति सर्वेऽपि वैष्णवसम्प्रदायविदो विदन्ति वदन्ति च । अयमेव चास्त्यस्य रामानुजसम्प्रदायस्य प्रथमाचार्यः । अस्यास्ति जन्मदातुः पितुर्नाम श्रीकेशवभट्टः, माता च कान्तिमती । त्रिचनापल्लीप्रान्तान्तर्गत'भूतपुरी'-ग्रामनिवासी चाऽयं श्रूयते । अनेन विरचिताः केचन ग्रन्था अधस्तात् प्रदर्श्यन्ते-१. वेदान्तसारः', २. 'वेदान्तदीपः', ३. 'वेदार्थसारः' इत्यादि बहूनां ग्रन्थानां निर्माणकर्ता आसीत् । एवं श्रीमद्भगवद्गीताग्रन्थस्योपर्यपि टीकां रचितवानित्यपि श्रूयते एव न तु मया स्वयं शशिबालागौडेन समनुभूयते इति । अनेन विरचितस्य श्रीभाष्यस्योपरि १४०० ईसवीये वर्षे विराजमानः 'श्रीसुदर्शनभूरि नामको दार्शनिको विद्वान् 'श्रुतप्रकाशिका' नाम्नी टीका लिखितवानित्यपि श्रूयते एवेति बोध्यम् । दक्षिणदेशीयलाभकरत्वेनायं ब्राह्मणत्वजात्यवच्छिन्नो दाक्षिणात्यब्राह्मणः समनुभवगोचरतां प्रयाति । प्रत्यक्षानुमानशब्दाश्चेति त्रीण्येव प्रमाणान्यङ्गीकृतवान् श्रीरामानुजाचार्यः । (दर्शनशास्त्रस्येतिहासः, पृ-६७) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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