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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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से अनुभव कीये हुए अंतर की आनंदानुभववाली स्थिति जिस में होती हैं, ऐसी वृत्ति जो एकात्मता को पाती हैं, उसे सुषुप्ति-स्वप्न अवस्था कहते हैं । (३) यह आत्मा की, दृश्य संबंधित बुद्धि की वृत्ति, केवलीपन की भावना रुप बन जाये और केवल एक ज्ञान की ही प्राप्ति हो जाये, उसको सुषुप्ति-सुषुप्ति अवस्था कहते हैं।
इस तरह वेदांत में जीव की तीन अवस्थाओं का स्वरुप बताया हैं।
• वेदांत के विभिन्न संप्रदाय और उनकी मान्यतायें :- श्रीबादरायणऋषि के ब्रह्मसूत्र के उपर बहोत भाष्य रचे गये हैं और प्रत्येक भाष्यकार ने वेदांत को अलग-अलग तरीके से समजाने का प्रयत्न किया हैं। उसमें...
(१) श्रीशंकराचार्य कृत शारीरिक भाष्य में "निर्विशेषाद्वैत (केवलाद्वैत)" सिद्धांत की पुष्टि की गई हैं। (२) श्रीभास्कराचार्य कृत भास्करभाष्य में "भेदाभेद' सिद्धांत बताया हैं। (३) श्रीरामानुजाचार्य विरचित श्रीभाष्य में "विशिष्टाद्वैत' मत को बताया हैं (४) श्रीमाधवाचार्य संदृब्ध पूर्णप्रज्ञभाष्य में "द्वैतवाद" का समर्थन किया गया हैं। (५)श्रीनिम्बकाचार्य रचित वेदांतपरिजातभाष्य में "द्वैताद्वैत" सिद्धांत का प्ररुपण किया हैं । (६) श्रीकंठाचार्यकृत शैवभाष्य में "शैवविशिष्टाद्वैत' मान्यता को बताई हैं । (७) श्रीपति रचित श्रीकरभाष्य में "वीरशैवविशिष्टाद्वैत''सिद्धांत का प्रतिपादन हैं। (८) श्रीवल्लभाचार्यविरचित अणुभाष्य में "शुद्धाद्वैत" मत का निरुपण किया हैं । (९)श्रीविज्ञानभिक्षुकृत विज्ञानामृतभाष्य में "अविभागाद्वैत" सिद्धांत का वर्णन किया हैं। (१०) श्रीबलदेव विरचित गोविंदभाष्य में "अनित्यभेदाभेद" वाद का पुरस्कार हुआ हैं।
अब पूर्वोक्त विभिन्न संप्रदायो की मान्यताओं को आंशिक देखेंगे । यहाँ उन सभी मान्यताओं का विस्तार संभव नहीं हैं। केवल उस उस आचार्यों ने अपने से अन्य आचार्यो से कौन-कौन सी मान्यताओ में भिन्न अभिगम बताया है, वही देखेंगे। यहाँ, उल्लेखनीय हैं कि, उपरोक्त मतो में श्रीशंकराचार्य का "निर्विशेषाद्वैत" मत ज्यादा प्रचलित हैं। हमने जो पहले ब्रह्मादि का वर्णन देखा हैं वह भी श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद की पुष्टि करनेवाले ग्रंथो के माध्यम से ही किया हैं।
(१)निर्विशेषाद्वैत (केवलाद्वैत )मत :- यह मत श्रीशंकराचार्य का हैं। उनके अद्वैतसिद्धांत का(३८८) सारांश यह हैं कि, इस जगत में हम को नेत्रो से जो दिखाई देता हैं, वह सत्य नहीं हैं। इस समस्त विश्व में यदि कोई वस्तु सत्य हो तो वह ब्रह्म की चैतन्य सत्ता हैं अर्थात् सृष्टि का एकमात्र तत्त्व हैं ब्रह्म । वही सत्य हैं। सामने दिखाई देता जगत मिथ्या हैं। जैसे अंधेरे में रस्से के बदले सर्प दिखाई दे वैसे मायाजन्य अज्ञान के कारण जगत सत्य लगता हैं। जीव ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म निर्विशेष हैं । ब्रह्म ही एक पारमार्थिक सत्य हैं । फिर भी जब तक अज्ञान विद्यमान हैं
और जगत, जगत रुप में ही दिखता हो तब तक व्यवहार में जगत का स्वीकार करना पडता हैं । वह अपनी मर्यादा में व्यावहारिक सत्य भी हैं। इतना ही नहीं, स्वप्न चलता हो या भ्रमणा चलती हो, उस समय दरमियान स्वप्न सृष्टि का भी एक सत्य हैं और भ्रमणा से खडे हए सख-दःख भी सत्य होते हैं। वह प्रातिभासिक सत्य हैं। इस तरह से पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक : ये तीन सत्यो का स्वीकार करना पडता हैं।
उपनिषदो में ब्रह्म का वर्णन 'नेति नेति' इत्याकारक निषेधात्मक शब्दो से और "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इत्याकारक विधेयात्मक शब्दो से भी किया गया है। सारांश में, इस विश्व में एकमात्र ब्रह्म की ही चैतन्य सत्ता हैं। जो अपनी माया-अविद्या नाम की शक्ति से जगत की उत्पत्ति-संहार करती हैं। दिखाई देते इस जगत में द्वैत की प्रतीति (३८८) "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।"
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