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________________ ४४४ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन रजोगुण दुःखादिरुप से परिणामभोग्य होने से रजोगुण में दुःखत्व का उपचार होता हैं। परंतु राजसीवृत्ति स्वयं रजोगुण का परिणाम नहीं हैं। सात्विकी, राजसी और तामसी ये त्रिविध वृत्ति सत्त्वगुण का ही परिणाम हैं। ज्ञानरुप वृत्तिमात्र सत्त्वगुण का परिणाम हैं । “सत्त्वति संजायते ज्ञानम्" (१४.१७ ) यह गीतावचन उसमें प्रमाण हैं । सत्त्वगुण के अतिरिक्त अन्य गुण का परिणाम ज्ञानरुप वृत्ति नहीं हो सकती। सुषुप्ति अवस्था में जो तामसी वृत्ति हैं वही सुषुप्तिसुषुप्ति कही जाती हैं। ऐसी सुषुप्ति के बाद "दृढता से मूढ ऐसा मैं सोया था'' ऐसी स्मृति होती हैं। यह सब चर्चा योगवासिष्ठ और वार्तिकामृत इत्यादि ग्रन्थो में विस्तृतरुप से की गई हैं ।(३८४) ___ अब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से पूर्वोक्त तीन अवस्था के तीन तीन प्रकार 'सर्ववेदान्त-सिद्धान्त सार संग्रह' ग्रंथ में बताये है, वह अब देखेंगे हैं। • जाग्रदवस्था के तीन प्रकार ३८५) :- (१) सामने दिखाई देता पदार्थ में "यह मेरा हैं" -ऐसी भावना जब रहती नहीं हैं, तब वह जाग्रत् में भी जाग्रत् अवस्था हैं । (२) "दिखाई देते पदार्थ की परंपरा सच्चिदानंद ऐसे मुझ में रही हुइ हैं" ऐसा जानकर नाम और रुप का त्याग हो जाये, उसे जाग्रत् में स्वप्नावस्था कही जाती हैं। __ (३) “परिपूर्ण चैतन्य से ही चारो ओर प्रकाशित चिदाकाश ऐसे मुझ में केवल ज्ञानस्वरुप बिना अन्य कुछ नहीं हैं" ऐसा अनुभव को जाग्रत् में सुषुप्ति अवस्था कही जाती हैं • स्वप्नावस्था के तीन प्रकार ३८६ ):- (१) “मेरा मूल अज्ञान का नाश हुआ हैं, इसलिए कारणाभास की चेष्टाओं से मुझ को अल्प भी बंधन नहीं हैं" ऐसा अनुभव को स्वप्न-जाग्रत्अवस्था कही जाती हैं। (२)अज्ञानरुप कारण का नाश होने से द्रष्टा, दर्शन और दृश्य रुप कोइ कार्य ही रहा नहीं हैं, ऐसा जो ज्ञान, उसको स्वप्नस्वप्न अवस्था कहते हैं । (३)अतिसूक्ष्मविचार के कारण अपनी बुद्धि की वृत्ति अचंचल बनकर जब ज्ञान में विलय हो जाती हैं, तब उस अवस्था को 'स्वप्नसुषुप्ति' कहते हैं। • सुषुप्ति अवस्था के तीन प्रकार ३८७):- (१) चैतन्यमय आकारवाली बुद्धि, वह बुद्धि की वृत्ति के प्रसारो के साथ केवल आनंद के अनुभव रुप से ही परिणमन होता हैं, उसे सुषुप्तिजाग्रत् अवस्था कहते हैं। (२) चिरकाल __ (३८४) अथवा अवस्थात्रयस्यापि त्रैविध्याङ्गीकारात् सुषुप्तावपि दुःखमुपपद्यते । तथाहि प्रमाज्ञानं जाग्रज्जाग्रत्, शुक्तिरजतादिविभ्रमो जाग्रत्स्वप्नः, भ्रमादिना स्तब्धीभावो जाग्रत्सुषुप्तिः । एवं स्वप्ने मन्त्रादिप्राप्तिः स्वप्नजाग्रत्, स्वप्नेऽपि स्वप्नो मया दृष्ट इति बुद्धिः स्वप्नस्वप्नः, जाग्रद्दशायां कथयितुं न शक्यते स्वप्नावस्थायां च यत्किञ्चिदनुभूयते तत्स्वप्नसुषुप्तिः । एवं सुषुप्त्यवस्थायामपि सात्त्विकी या सुखाकारा वृत्तिः सा सुषुप्तिजाग्रत्, तदनन्तरं सुखमहमस्वाप्समिति परामर्शः । तत्रैव या राजसी वृत्तिः सा सुषुप्तिस्वप्नः, तदनन्तरमेव दुःखमहमस्वाप्समिति परामर्शोपपत्तिः । तत्रैव या तामसी वृत्तिः सा सुषुप्तिसुषुप्तिः, तदनन्तरं गाढं मुढोऽहमस्वाप्समिति परामर्शः । यथा चैतत् तथा वासिष्ठवातिकामतादौ स्पष्टम् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४३७-४३९ (३८५) इदं ममेति सर्वेषु दृश्यभावेष्यभावना । जाग्रज्जाग्रदिति प्राहुर्महान्तो ब्रह्मवित्तमाः ॥९४९।। विदित्वा सच्चिदानंदे मयि दृश्यपरंपराम् । नामरुपपरित्यागो जाग्रत्स्वप्नः समीर्यते ॥९५०।। परिपूर्णचिदाकाशे मयि बोधात्मतां विना । न किंचिदन्यदस्तीति जाग्रत्सुप्तिः समीर्यते ॥९५१॥ (सर्व वेदांत सि.सा. संग्रह) (३८६) मूलाज्ञानविनाशेन कारणाभासचेष्टितैः । बंधो न मेऽतिस्वल्पोऽपि स्वप्नजाग्रदितीर्यते ॥९५२॥ कारणाज्ञाननाशाद्यद्रष्टुदर्शनदृश्यता । न कार्यमस्ति तज्ज्ञानं स्वप्न-स्वप्नः समीर्यते ॥९५३॥ अतिसूक्ष्मविमर्शन स्वधीवृत्तिरचंचला । विलीयते यदा बोधे स्वप्नसुषुप्तिरितीर्यते ॥९५४॥ (स.वे.स.सा.संग्रह) (३८७) चिन्मयाकारमतयो धीवृत्तिप्रसरैर्गतः। आनंदानुभवो विद्वन् सुप्तिजाग्रदितीर्यते ॥९५५।। वृत्तौ चिरानुभूतांतरनंदानुभवस्थितौ। समात्मतां यो यात्येष सुप्तिस्वप्न इतीर्यते ॥९५६।। दृश्यधीवृत्तिरेतस्य केवलीभावभावना परं बोधैकतावाप्तिः सुप्तिसुप्तिरितीर्यते ॥९५७।। (सर्ववेदांत-सिद्धांत-सारसंग्रहः) करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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