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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४४३ श्रीसुरेश्वराचार्य ने कहा हैं कि देहभेद से प्रमाताभेद और प्रमाणभेद होने पर भी साक्षीभेद नहीं होता हैं। साक्षी वही का वही रहता हैं । यह साक्षी ही आत्मा हैं। श्रुति में भी यही बात कही हैं - "एष ते अन्तर्यामी अमृतः" (बृहदारण्यक ३.१.३)(३०२) यदि कहा जाये कि, सुप्तोत्थित पुरुष को जैसे सुषुप्तिकालीन स्वरुपसुख के अनुभव के कारण "मैं सुख से सो गया था" ऐसा सुखस्मरण होता हैं, वैसे सुप्तोत्थित किसी पुरुष को कोई बार "मैं दुःखपूर्वक सो गया था'' ऐसा दुःखस्मरण भी होता हैं। इसलिए क्या सुषुप्ति में दुःखानुभव भी स्वीकार करे ? नहीं । सुषुप्तिदशा में दुःखानुभव की सामग्री न होने से सुषुप्तिदशा में दुःखानुभव नहीं हो सकता। यदि कहा जाये कि सुषुप्तिदशा में जैसे दुःखानुभव की सामग्री नहीं होती हैं, वैसे सुखानुभव की भी सामग्री नही होती हैं, तो फिर सुषुप्ति में सुखानुभव भी किस तरह से होता हैं ? इसके उत्तर में कहना चाहिए कि, साक्षिस्वरुप सुख नित्य हैं, वह कारणजन्य नहीं हैं। यह स्वरुपसुख के आकार की अविद्यावृत्ति द्वारा स्वरुपसुख का अनुभव सुषुप्ति में हो सकता हैं। कभी "दुःखपूर्वक मैं सो गया था" ऐसा जो स्मरणरुप बोध होता हैं इसका अर्थ ऐसा होता हैं कि, "दुःखसाधन शय्यादि में शयन किया था। दुःख साधन शय्यादि ही ऐसी प्रतीति का विषय हैं। शय्यादि के असमीचीनत्व के कारण ही शय्यादि में दुःख का उपचार किया जाता हैं। वस्तुतः सुषुप्ति में दुःख का अनुभव नहीं होता हैं। "मैं दुःखपूर्वक सो रहा था'' ऐसी प्रतीति में दुःख का उपचारमात्र होता हैं ।(३८३) अथवा, कोई कोई सुषुप्ति में दुःखानुभव भी होता हैं ऐसा भी स्वीकार किया जा सकता हैं। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन अवस्थाओ में से प्रत्येक अवस्था त्रिविध हैं । त्रिविध जाग्रद्अवस्था इस अनुसार से हैं- (१) जाग्रत्-जाग्रत् (२)जाग्रत्-स्वप्न और (३) जाग्रत्-सुषुप्ति । प्रमाज्ञान को जाग्रत्-जाग्रत् कहा जाता हैं। शुक्तिरजतादि विभ्रमरुप ज्ञान को जाग्रत्-स्वप्न कहा जाता हैं। और जब श्रमादि द्वारा स्तब्धीभाव हो अर्थात् अहमाकारा वृत्ति से भिन्नवृत्ति सामान्याभाव से हो तब जाग्रत्-सुषुप्ति हुई कही जाती हैं। इस तरह से स्वप्नावस्था भी त्रिविध हैं। (१)स्वप्न-जाग्रत् (२)स्वप्न-स्वप्न और (३)स्वप्न-सुषुप्ति । स्वप्नावस्था में मन्त्रादि की प्राप्ति यह स्वप्न-जाग्रत् कहा जाता हैं। स्वप्नावस्था में भी स्वप्न दिखता हैं, अर्थात् स्वप्न में स्वप्न दिखे वह स्वप्न स्वप्न कहा जाता हैं। और जाग्रवस्था में कहा न जा सके ऐसा स्वप्नदर्शन स्वप्नसुषुप्ति कहा जाता हैं। स्वप्नदशा में जो अनुभव हुआ हो उसे जाग्रद्दशा में कहना असंभव होने से उसको स्वप्न-सुषुप्ति कही जाती हैं। इसी तरह से सुषुप्तिअवस्था भी त्रिविध हैं । (१) सुषुप्ति-जाग्रत् (२) सुषुप्ति-स्वप्न और (३) सुषुप्ति-सुषुप्ति । सुषुप्ति अवस्था में सात्विकी सुखाकारा वृत्ति सुषुप्ति-जाग्रत् कही जाती हैं। ऐसी सुषुप्ति के बाद सुप्तोत्थित पुरुष को "मैं सुख से सोया था'" ऐसी स्मृति होती हैं। ऐसी सुषुप्ति में जो सात्विकी सुखाकारवृत्ति होती हैं वह सत्त्वगुण का परिणाम हैं और सुखाकार वृत्ति आत्मविषयिणी वृत्ति हैं । सुषुप्तिअवस्था में जो राजसी वृत्ति होती हैं वही सुषुप्ति-स्वप्न कहा जाता हैं। ऐसी सुषुप्ति के बाद “मैं दुःख पूर्वक सोया था" ऐसी स्मृति होती हैं। यहाँ राजसीवृत्ति का अर्थ हैं- रजोगुणविषयिणी वृत्ति । (३८२) मातृमानप्रभेदेऽपि प्रतिदेहं न भिद्यते । साक्षी बाह्यार्थवद् यस्मात् स आत्मेत्युच्यते ततः ॥ ...इति वातिककारपादैर्व्यवहारदशायामपि साक्षिभेदनिराकरणात् । सुषुप्तौ तद्भेकल्पनं केषाञ्चिद्व्यामोह एवेत्यवधेयम् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४३५. (३८३) दुःखमहमस्वाप्समिति कस्यचित् कदाचित् परामर्शात् सुषुप्तौ दुःखानुभवोऽप्यस्तु । न, तदानीं दुःखसामग्रीविरहेण तदभावात् । सुखस्य चात्मस्वरूपत्वेन नित्यत्वात् शय्यादेरसमीचीनत्वेन च दुःखमित्युपचारात् दुःखमहमस्वाप्समिति प्रत्ययोपपत्तिः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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