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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
कोई नीचे बताये अनुसार कहता हैं । मनोऽवच्छिन्न जीव हो तो सुषुप्तिदशा में मन का लय हो जाता होने से, भेदक उपाधिरुप जो मन है उसके लय के कारण, ईश्वर के साथ जीव के अभेद की आपत्ति आयेगी ।(३७७) उपरांत, इस प्रकार सुषुप्तिदशा में जीव नहीं रहने से अविद्या जीव के स्थान पर ब्रह्मचैतन्य की आवरक बन जाने की आपत्ति आयेगी। इसके उत्तर में कहते हैं कि इस प्रकार नही कहा जा सकता । मनोऽवच्छिन्न चैतन्य को जीव मानने से सुषुप्तिदशा में इन सब दोषो की आपत्ति आती हैं, ऐसा जो मानते हैं, उनका मत गलत हैं। क्योंकि सुषुप्ति दशा में मन होता हैं । जीवोपाधि मन सुषुप्तिदशा में स्थूलरुप में न होने पर भी सूक्ष्मरुप में होता हैं और उसके द्वारा जीवेश्वरविभाग सिद्ध होता हैं और जीव के प्रति अविद्या का आवरकत्व भी सिद्ध होता हैं। __यहाँ ध्यान में रखना कि, जो अविद्योपहित चैतन्य को जीव कहते हैं और मनोऽवच्छिन्न चैतन्य को जीव नहीं कहते हैं उनके मतानुसार सुषुप्तिदशा में प्रदर्शित दोषो की संभावना नहीं हैं। सुषुप्ति दशा में जीव की उपाधि अविद्या विद्यमान ही होता हैं । (३७८)
सिद्धान्तबिंदु में बताया है कि, जो स्मृति, संशय आदि ज्ञानाभास को साक्षीमात्र में आश्रित मानते हैं । (३७९) वे "अविद्यागत चिदाभास ही साक्षी हैं" ऐसे वार्तिककार के मत का अवलंबन लेकर ही ऐसा मानते हैं । परंतु विवरणकार के मतानुसार यह अयोग्य हैं । विवरणकार अनुसार अविद्या में पडता चैतन्य का प्रतिबिंब ही जीव हैं। बिंबरुप चैतन्य स्वयं ही ईश्वर हैं और बिब-प्रतिबिंब दोनों में अनुगत ऐसा शुद्ध चैतन्य ही साक्षी हैं। विवरणकार के इस मत में स्मृत्यादिकार्य साक्षिमात्र में आश्रित नहीं हैं परंतु अविद्याविशिष्टचिदाभास में आश्रित हैं । ३८०)
सुषुप्ति में अन्तःकरण का लय होने के कारण प्रमाता का भी लय होता हैं। अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य ही प्रमाता हैं। परिणामतः प्रत्येक उत्थान के समय प्रमाता का भेद मानना पडेगा, और ऐसा मानने से पूर्वदिनस्थित प्रमाता ने अनुभव किये हुए विषय का परदिनस्थित प्रमाता स्मरण करे, यह नहीं होता, क्योकि पूर्वदिनस्थित प्रमाता और परदिनस्थित प्रमाता भिन्न हैं। इसके उत्तर में श्रीमधुसूदन सरस्वती ने कहा हैं कि इस तरह से प्रमाता का भेद होने पर भी साक्षी का भेद नहीं होता हैं। पूर्वदिन में और परदिन में साक्षी एक ही होता हैं । साक्षी ही अधिक उपाधि से विशिष्ट बनकर प्रमाता बनता हैं। इसलिए अनुभव और स्मृति का सामानाधिकरण्य होता हैं, इसलिए पूर्वदिन में अनुभूत वस्तु का स्मरण परदिन में हो सकता हैं । (३८९) __ वार्तिककार श्रीसुरेश्वराचार्य व्यवहारदशा में भी साक्षी का भेद स्वीकार नहीं करते हैं । उल्टा साक्षीभेद का निराकरण करते हैं। इसलिए सुषुप्ति दशा में साक्षीभेद की कोई संभावना ही नहीं हैं।
(३७७) न वा सार्वजयापत्तिः । सिद्धान्तबिन्दुः, पृ. ४३२र ...मनोऽवच्छिन्नस्य जीवत्वे तु मनउच्छेदेन जीवत्वाभावः स्यात्, ईशाभेदसम्पत्त्या सार्वज़्यापत्तिश्च स्यात् । जीवस्याभावेन तं प्रत्यविद्याऽऽवृणोतीत्यस्य वक्तुमशक्यत्वादिति भावः । न्यायरत्नावली, पृ. ४३२ (३७८) अविद्योपहितचैतन्यस्य जीवत्वपक्षे नोक्तप्रसङ्गः । न्यायरत्नावली, पृ. ४३२ (३७९) स्मृतिसंशयविपर्यायाणां साक्षिचैतन्याश्रयत्वनियमात् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२४-४२५ (३८०) अत्रेदं बोध्यम् । मूले साक्षिमात्राश्रितत्वरूपं साक्ष्याश्रितत्वं स्मरणार्यदुक्तं तदविद्यागतचिदाभासः साक्षीति वार्तिकमवलम्ब्यैव।... बिम्बप्रतिबिम्बानुगतशुद्धचित् साक्षीति मते तु स्मृत्यादिकार्यं न साक्षिमात्राश्रितम् किन्तु अविद्याविशिष्टचिदाभासाश्रितमपि । न्यायरत्नावली, पृ. ४३४ (३८१)...ननु पूर्वदिनस्थप्रमात्रानुभूतमद्यदिनस्थप्रमात्रा न स्मर्येत तयोर्भेदात्... । न्यायरत्नावली, पृ. ४३४ ...साक्षिण एव चाधिकोपाधिविशिष्टस्य प्रमातृत्वान्न प्रतिसन्धानानुपपत्तिरिति । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४३४
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