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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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कहा जाता हैं। वस्तुतः ज्ञानाभास अज्ञान का विरोधी नहीं हैं, इसलिए वह ज्ञान नहीं हैं। अद्वैतवेदान्त के ये समस्त सिद्धान्तरहस्य का खयाल न होने से वेदान्तपरिभाषाकार ने भाट्टमतमान्य प्रमालक्षण को अद्वैतवेदान्त के उपर ढोने की चेष्टा की हैं । (३७२) भाट्टमतमान्य प्रमा और अद्वैतवेदान्त प्रमा अत्यन्त विलक्षण हैं। ज्ञानाख्य अन्तःकरणवृत्ति ही अद्वैतवेदान्त के मतानुसार प्रमा हैं। इसलिए ज्ञान का अधिगतविषयक या बाधितविषयक होना कभी संभवित ही नहीं हैं। जो अधिगतविषयक हो, जैसे कि स्मृति, वह ज्ञानाभास हैं, अर्थात् अविद्यावृत्ति हैं, अन्तःकरणवृत्ति नहीं हैं, ज्ञान नहीं हैं, उसी ही तरह से बाधितविषयक शुक्तिरजतादि ज्ञान भी ज्ञान नहीं हैं परन्तु ज्ञानाभास हैं, अविद्यावृत्ति हैं, ज्ञान नही हैं अन्तःकरणवृत्ति नहीं हैं । इसलिए ही सिद्धान्तबिंदु में श्रीमधुसूदन सरस्वती ने स्मृति, संशय और विपर्ययज्ञान का अविद्यावृत्ति के रुप में निर्देश किया हैं, वह स्मृति इत्यादि ज्ञानाभास हैं परन्तु ज्ञान नहीं हैं अर्थात् अन्तःकरणवृत्ति नहीं हैं । (३७३) अनुमित्यादि परोक्षप्रमा की तरह परोक्ष भ्रम भी अन्तःकरणवृत्ति नही हैं परन्तु अविद्यावृत्ति हैं। अनाप्तवाक्यादिजन्य परोक्ष भ्रम होता हैं । (३७४) सुषुप्त अवस्था में स्वरुपभूत सुख के आकार की अविद्यावृत्ति होती हैं, इसलिए सुषुप्त अवस्था में सुखभोग होता हैं। सुखसाक्षात्कार ही सुखभोग हैं। इस भोग का भोक्ता सुषुप्त्यभिमानी प्राज्ञ हैं। इस सुषुप्त्यभिमानी चैतन्य को प्राज्ञ क्यों कहा हैं इसका कारण बताते हुए श्रीमधुसूदन सरस्वती ने कहा हैं कि सुषुप्त्यभिमानी "प्रकर्षेण अज्ञ" होने से उसको प्राज्ञ के नाम से पहचाना जाता हैं। जीव को मूलाज्ञान सर्वदा होता हैं इसलिए वह सर्वदा अज्ञ तो हैं ही। परंतु सुषुप्तिकाल में मूलाज्ञान तो होता है ही, उपरांत अवस्थाअज्ञान भी होता हैं। इस प्रकार सुषुप्ति में द्विविध अज्ञान होने से सुषुप्त्यभिमानी विशेषरुप से अज्ञ हैं। श्रीमधुसूदन ने इस "प्राज्ञ'' नाम का अन्य अर्थ भी किया हैं। वह नीचे अनुसार हैं। सुषुप्तिदशा में तीन वृत्तियाँ होती हैं ऐसा कहा गया हैं। इन तीन वृत्ति के विषय से अन्य विषयविशेष का दर्शन सौषुप्त साक्षी नही करता हैं, इसलिए अन्यविषयविशेषविषयकत्व सौषुप्त साक्षी को नहीं हैं। और "विशेषावच्छेदाभावेन प्रकृष्टज्ञत्वात् वा" द्वारा श्रीमधुसूदन ने यही बात कही हैं । सुषुप्तिदशा में अज्ञानादि तीन विषय के अतिरिक्त अन्य व्यावहारिक प्रपंचविषयक ज्ञान नहीं होता हैं । उक्त तीन विषय के अतिरिक्त व्यावहारिक विषय ही विशेष विषय हैं। यह विशेषविषयकत्व सौषुप्त साक्षी को नहीं होता हैं। विशेषविषयक ज्ञान ही दुःख का कारण हैं। दुःख के कारणभूत विशेषविषयकत्व का अभाव यही सौषुप्त ज्ञान का प्रकर्ष हैं ।(३७५) जो मनोऽवच्छिन्न चैतन्य को ही जीव कहते हैं, उनके मतानुसार सुषुप्तिदशा में मन का लय हुआ होने से मनोऽवच्छिन्न चैतन्य भी नहीं होता हैं। इसलिए सुषुप्ति में जीव के अभाव की आपत्ति आये ऐसा किसी को लगेगा परंतु ऐसी आशंका करना अयोग्य हैं। स्थूल-सूक्ष्म साधारण मन से अवच्छिन्न चैतन्य ही जीव हैं। सुषुप्तिदशा में मन स्थूलरुप में न होने पर भी सूक्ष्मरुप में या संस्काररुप में तो अवश्य होता हैं और ऐसा मन सुषुप्तिदशा में भी चैतन्य का अवच्छेदक होता हैं ही। इसलिए सुषुप्तिदशा में जीव के अभाव की आपत्ति नहीं आती हैं ।(३७६)
(३७२) तत्र स्मृतिव्यावृत्तं प्रमात्वम् अनधिगताबाधितार्थविषयज्ञानत्वम् । वेदान्तपरिभाषा, पृ. १९-२० (३७३) सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२४-४२५ (३७४) अनाप्तवाक्यादिजन्यपरोक्षविभ्रमोऽप्यविद्यावृत्तिरेवेत्यभ्युपगमो वेदान्तविदाम् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२५-४२६ (३७५) सुषुप्त्यवस्थायामस्त्यानन्दभोगस्तद्भोक्ता च सुषुप्त्यभिमानी प्राज्ञ इत्युच्यते । प्रकर्षेणाज्ञत्वात् तदानीं विशेषावच्छेदाभावेन प्रकृष्टज्ञत्वाद् वा। सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४३२
....मूलाज्ञानं सर्वदास्ति । अवस्थाऽज्ञानमपि सुषुप्ताविति प्रकर्षः । विशेषावच्छेदाभावेन वृत्तित्रयविषयान्यविषयविशेषविषयक त्वाभावेन । सौषुप्तसाक्षिण इति शेषः । विशेषविषयकत्वस्य दुःखप्रयोजकत्वेन तदभावो ज्ञानस्य प्रकर्षः । न्यायरत्नावली, पृ. ४३२ (३७६)...तदा चान्तःकरणस्य लयेऽपि तत्संस्कारेणावच्छेदान्न जीवाभावप्रसङ्गः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४३२
अवच्छेदादिति । मनोऽवच्छिन्नचैतन्यमेव जीव इति पक्षे इति शेषः । न्यायरत्नावली, पृ. ४३२
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