________________
४४०
षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
हुआ अहंकार अनुभव में नहीं आता हैं, इसलिए जाग्रत्काल में अहंकार की स्मृति नहीं हो सकती। परंतु उत्थान के समय अहंकार साक्षिचैतन्य द्वारा अनुभव में आता हैं। साक्षी के अहमाकारवाली अविद्यावृत्ति स्वीकार की गई हैं। अहंकार साक्षिवेद्य हैं, प्रमाणवेद्य नहीं हैं । (३६९) ___ इसके सामने नीचे बताये अनुसार आपत्ति दी जाती हैं। सुप्तोत्थित पुरुष को अज्ञानादिविषयकस्मृति होती हैं। सुषुप्ति में अज्ञान के अनुभवकाल में अज्ञानानुभाव का आश्रय साक्षी ही होता हैं अहंकार नहीं । सुषुप्तिकाल में अज्ञान को अनुभव करनेवाला साक्षी हैं, अहमर्थ नहीं हैं। परंतु सुप्तोत्थित पुरुष को होती अज्ञानादिस्मृति के आश्रयरुप में अहमर्थ का ही स्वीकार किया गया हैं। अहमर्थ ही स्मृति का आश्रय हैं यह अनुभव सिद्ध हैं। इस प्रकार यहा अनुभव का आश्रय भिन्न हैं और स्मृति का आश्रय भिन्न हैं । अनुभव और स्मृति के सामानाधिकरण्य का नियम सभी स्वीकार करते हैं, जो अनुभव करता हैं, वही स्मरण करता हैं। अद्वैतवेदान्ती उस नियम का अपलाप किस तरह से कर सकते हैं ? (३७०)
इसके उत्तर में अद्वैतवेदान्ती नीचे अनुसार से कहते हैं। जो साक्षिचैतन्य को सुषुप्तिकाल में अज्ञान का अनुभव हुआ होता हैं, उसी साक्षिचैतन्य को अज्ञान का स्मरण भी होता हैं । परंतु स्मरणकाल में उस साक्षिचैतन्य के उपर अहंकार आरोपित हुआ होने से अहंकार स्मरण का आश्रय हैं, ऐसा बोध होता हैं । वस्तुतः अहंकार स्मरण का आश्रय नहीं हैं। स्मरणकाल में स्मरणाश्रय साक्षिचैतन्य में अध्यस्त अहंकार के साथ स्मरण का संसर्ग का बोध होता हैं। वास्तव में स्मरण अहंकाराश्रित नहीं हैं। जैसे एक ही दर्पण में मुख और कुसुमलौहित्य प्रतिबिंबित होने से मुख में रक्तता के संसर्ग का बोध होता हैं, यहां भी वैसे ही समजना चाहिए । स्मृति, संशय और विपर्यय ज्ञानाभास हैं, अविद्यावृत्ति हैं । उस ज्ञानाभास या अविद्यावृत्ति का आश्रय साक्षिचैतन्य ही हैं। अहंकार या अन्तःकरण अविद्यावृत्ति का आश्रय नहीं हैं। प्रमाणाजन्य ज्ञान का ही आश्रय अहंकार या अन्तःकरण हैं । अहंकार प्रमा का ही जनक हैं। अहंकार प्रमा का ही आश्रय हैं। अप्रमारुप ज्ञानाभास की जनक अविद्या ही हैं और अविद्योपहित साक्षी ही उस ज्ञानाभास का आश्रय हैं। अप्रमाज्ञानमात्र ज्ञानाभास हैं। जैसे हेत्वाभास हेतु नहीं हैं वैसे ज्ञानभास ज्ञान नहीं हैं। इसलिए ज्ञानमात्र प्रमा हैं । जो अप्रमा हैं, वह ज्ञानाभास हैं । अज्ञान (अविद्या) ज्ञानविरोधित्वरुप में भासित होता हैं, अर्थात् अज्ञान प्रमाविरोधित्वरुप से भासित होता हैं। अज्ञान ज्ञानाभास का विरोधी नहीं हैं। उल्टा अज्ञान ज्ञानाभास का उपादान हैं । (३७१)
प्राभाकर मत में ज्ञानमात्र को प्रमा कहा जाता हैं । विचार करने से मालूम होगा कि यह बात अद्वैतवेदान्ती को भी मान्य हैं । अन्तःकरणवृत्ति वह ज्ञान ही है और ज्ञानमात्र प्रमा हैं, यह अद्वैतवेदान्ती का मत हैं। अद्वैतवेदान्ती अविद्यावृत्तिरुप ज्ञानाभास स्वीकार करते हैं। प्राभाकार मत में उसका स्वीकार ही नहीं हैं। अद्वैतवेदान्ती अनुसार, ज्ञानाभास अज्ञान का निवर्तक नहीं, उस कारण से ही उसको ज्ञान नहीं कहा जा सकता। अज्ञान का अविरोधी ज्ञान, ज्ञान ही नहीं हैं । ज्ञानभास अज्ञान का अविरोधी हैं इसलिए वह ज्ञान नहीं हैं । परंतु ज्ञानाभास भी ज्ञान की तरह ही संस्कार और इच्छादि का जनक हैं, इसलिए किसी स्थान पे ज्ञानाभास को भी ज्ञान
(३६९) अहङ्कारस्तूत्थानसमय एवानुभूयते । सुषुप्तौ लीनत्वेन तस्याननुभूतत्वात् स्मरणानुपपत्तेः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२३-४२४ । न्यायरत्नावली, पृ. ४२३ (३७०) सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२४ । न्यायरत्नावली, पृ. ४२३-४२४ (३७१) मुखप्रतिबिम्बाश्रये दर्पणे जपाकुसुमलौहित्याध्यासेन रक्तं मुखमिति प्रतीतिवदहङ्काराश्रयतया साक्षिचैतन्यस्य स्मरणाश्रयत्वादहमस्वाप्समिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिः, न पुनरहं सुखीतिवदाश्रयतया । स्मृतिसंशयविपर्यायाणां साक्षिचैतन्याश्रयत्वनियमादहङ्कारस्य च प्रमाणजन्यज्ञानाश्रयत्वनियमात् प्रमात्वेनैव तत्कार्यतावच्छेदात अप्रमात्वावच्छेदेन च अविद्याया एव कारणत्वात् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२४-४२५ । न्यायरत्नावली, पृ. ४२४-४२५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org