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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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अनुमान करना पडेगा - स्वप्न और जाग्रत् का मध्यकाल (पक्ष) सुषुप्तिमान् (साध्य) हैं, क्योंकि ज्ञानसामान्य का अभाव हैं अथवा जन्यज्ञानसामान्य का अभाव हैं (हेतु)। ऐसा अनुमान संभवित नहीं हैं। क्यों? क्योंकि प्रथम हेतु संगत नहीं हैं, वह असिद्ध हैं। ज्ञानसामान्याभाव को जानने का कोई उपाय नहीं हैं। उपरांत यह ज्ञानसामान्याभाव हेतु पक्षवृत्ति रुप में कभी ज्ञात होता नहीं हैं। दूसरा हेतु भी असिद्ध हैं। दूसरे हेतु को जानने का कोई उपाय नहीं हैं। (३६६)
इसके सामने नीचे बताये अनुसार कहा जाता हैं। स्वप्न-जाग्रत् मध्यकाल से विशिष्टरुप से किसी भी विषय का स्मरण नहीं होता हैं, अर्थात् सुषुप्तिकालविशिष्ट किसी भी वस्तु का स्मरण नहीं होता हैं। इसलिए सुषुप्तिकालीन किसी भी वस्तु के स्मरणाभाव के आधार पर सुषुप्तिकालीन जन्यज्ञानसामान्याभाव का अनुमान होता हैं। स्मरणाभाव उपर से स्मरण के जनक अनुभव का भी अभाव अनुमित हो सकता हैं। यह अनुमेय जन्यज्ञानसामान्याभाव ही सुषुप्ति का अनुमापक लिंग हैं। अनुभव उत्पन्न होकर अपने अधिकरणभूत क्षण से विशिष्ट ऐसे अपने विषय को ग्रहण करता है। अनुभव की अधिकरण क्षण अनुभव में आते विषय में विशेषणरुप से भासित होती हैं। जिस रुप में विषय का अनुभव हो उसी अनुभव में से स्मृति भी वही रुप में उत्पन्न होती हैं। तत्कालविशिष्टरुप से किसी का स्मरण होता न होने से स्मरण के जनक तादृश अनुभव के अभाव का अनुमान हो सकता हैं।
इसके समाधान में कहा जाता हैं कि, ऐसा कहना योग्य नहीं हैं। ज्ञान स्मृति का जनक हैं, ऐसा नियम नहीं हैं। ज्ञानमात्र यदि अवश्यरुप से स्मृति का जनक हो तो ऐसा संभव हो । ज्ञान में स्मृति का जनकत्व होने का नियम न होने से जन्यज्ञानसामान्याभाव का अनुमान नहीं हो सकता हैं। इसलिए जन्यज्ञानसामान्याभावरुप हेतु असिद्ध ही हैं। (३६७)
इस प्रकार प्रदर्शित अनुमान में पक्ष भी असिद्ध हैं । स्वप्न और जागरण के बीच का काल ही पक्ष हैं। वही सुषुप्तिकाल हैं। यह सुषुप्तिकाल का उपस्थापक कोई न होने से अनुपस्थित वह काल असिद्ध हैं। इसलिए प्रस्तुत अनुमान आश्रयासिद्ध दोष से दुष्ट हैं । परिणामतः सुप्तोत्थित पुरुष का "मैं कुछ जानता नहीं था' ऐसा ज्ञान "तत्तो''ल्लेखवर्जित होने पर भी वह स्मृति ही बनती हैं । उत्थानसमकालीन अनुभव नहीं होता हैं । इसलिए अद्वैतवेदान्ती सुप्तोत्थित पुरुष को होते "मैं कुछ जानता नहीं था'' इस अज्ञान को स्मृति कहते हैं । इस स्मृति का जनक सौषुप्त अनुभव हैं और उस अनुभव का विषय भावरुप अज्ञान हैं, यह अद्वैतवेदान्ती की बात हैं । (३६८) __ दूसरी आपत्ति कोई नीचे बताये अनुसार दे सकता हैं। यदि सुषुप्तिकाल में अहंकार विलीन हो गया हो तो सुषुप्तिकाल में अहंकार का अनुभव भी नहीं होता हैं। और अहंकार का अनुभव न हो तो सुप्तोत्थित पुरुष को "मैं कुछ जानता नहीं था'' ऐसा अहंकार स्मृति का विषय किस तरह से होगा? अहंकार यदि सुषुप्तिकाल में अनुभव में न आता हो तो सुप्तोत्थित पुरुष को उसका स्मरण हो यह उचित नहीं हैं। अननुभूत विषय का स्मरण नहीं होता हैं। इसके उत्तर में अद्वैतवेदांती बताते हैं कि सुप्तोत्थित पुरुष को अहंकार का स्मरण होता नहीं हैं परंतु उत्थान के समय ही अहंकार का अनुभव होता हैं । अहंकारांश में स्मृतित्व नहीं हैं परन्तु अनुभूतित्व हैं। सुषुप्तिकाल में लय
(३६६) स्वप्नजागरणयोर्मध्यकालं सुषुप्तिमान् ज्ञानसामान्याभावात् जन्यज्ञानसमान्याभावाद्वेत्यनुमानं न सम्भवति । आद्यो हि न हेतुः असिद्धत्वात् पक्षे ज्ञातुमशक्यत्वाच्च । अत एव न द्वितीयः । न्यायरत्नावली, पृ. ४२७ (३६७) न च तत्कालविशिष्टरूपेण कस्याप्यस्मृतेः तत्काले जन्यज्ञानसामान्याभावोऽनुमेयः । यदा हि अनुभवो जायते तदा तत्कालविशिष्टं स्वविषयं संगृह्णाति, ततश्च तद्रूपेण स्मृतेरुत्पत्तिः स्यात्, तदभावाच्च तादृशज्ञानाभाव इत्यनुमानसंभव इति वाच्यम् । ज्ञानस्य स्मृतिजनकत्वानियमात् । तस्माल्लिङ्गासम्भवः । न्यायरत्नावली, पृ. ४२३ (३६८)...आश्रयासिद्धिश्च तत्कालस्यानुपस्थितत्वात्...। न्यायरत्नावली, पृ. ४२३
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