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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
बोध नहीं हो सकता हैं। "ज्ञान को मैं जानता हुँ" ऐसी प्रतीति का विषय तो ज्ञानत्वविशिष्ट ज्ञान ही होता हैं । ज्ञानत्वांश से ज्ञान के प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक स्वीकार करने से “घट विषयक ज्ञानवान् में हुँ" ऐसी प्रतीति होने के बदले "घटविषयक किंचिद्वान मैं हुँ" ऐसी प्रतीति होनी चाहिए।(३६२) जो हो वह, नैयायिक के मतानुसार ज्ञान उत्पन्न होने के बाद प्रत्यक्ष होता हैं । ज्ञान उत्पन्न होने के बाद प्रत्यक्ष होता हैं, ऐसा मानने से उपर्युक्त प्रश्न उपस्थित होता हैं। परंतु अद्वैतवेदांतीओ के मतानुसार ज्ञान साक्षिवेद्य हैं। ज्ञान अपनी उत्पत्ति की क्षण में अज्ञात होता हैं परन्तु उत्पत्ति के बाद दूसरे ज्ञान द्वारा वह ज्ञात बनता हैं ऐसा अद्वैतवेदांती का मत नहीं हैं। ज्ञान साक्षिवेद्य होने से ज्ञान की अज्ञात सत्ता ही नहीं हैं। ज्ञान जब होता हैं तब साक्षी द्वारा ज्ञात ही होता हैं । ज्ञान सदा ज्ञात ही होता हैं। इस मत में वेदान्ती योगमत का अनुसरण करते हैं। ज्ञान के साक्षिवेद्यत्व मत में पहले अनुपस्थित ज्ञानत्वादि धर्म भी ज्ञान में प्रकार होकर भासित होते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्षपूर्वक सविकल्पक प्रत्यक्ष होता हैं, अर्थात् विशिष्टज्ञान में विशेषणज्ञान कारण हैं, ऐसा अद्वैतवेदांती स्वीकार नहीं करते हैं । (३६३) सुषुप्तिकाल में अहंकार विलीन हो गया होने से, उस समय अन्तःकरणोपराग संभवित नहीं हैं। इसलिए सुषुप्तिदशा में कालादिविशिष्टरुप से अनुभव भी संभवित नहीं हैं। कालादिविशिष्टरुप से हुए अनुभव से जन्य स्मृति में ही "तत्ता'' का उल्लेख होता हैं। सुषुप्ति में कालादिविशिष्टरुप से अज्ञान का अनुभव होता न होने से यह अनुभवजन्य स्मृति में भी "तत्ता'' का उल्लेख नहीं होता हैं। इसलिए ही सुप्तोत्थित पुरुष की अज्ञान की स्मृति "तत्ता" के उल्लेखरहित होती हैं। दूसरी एक बात यह कि, स्मरण में "तत्ता" के उल्लेख का कोई नियम नहीं हैं। स्मरणमात्र "तत्ता" के उल्लेखवाला होता हैं, ऐसा नियम न होने से, सुप्तोत्थित पुरुष को होते "तत्तो' ल्लेखरहित ज्ञान का स्मरणपन संगत होता हैं। "तत्ता" का उल्लेख न होने से वह ज्ञान स्मरण नहीं हो सकता, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए सुप्तोत्थित पुरुष को होता "मैं कुछ जानता नहीं था'' ऐसा ज्ञान "तत्ता" के उल्लेख बगैर का होने पर भी स्मरण ही हैं, ऐसा समजना चाहिए। सुप्तोत्थित पुरुष को होता "मैं कुछ जानता नहीं था'' ऐसा ज्ञान जाग्रत्कालीन अनुभव में से हो नहीं सकेगा। जाग्रद्दशा में "मैं सो गया था" ऐसा अनुभव नहीं हो सकता। अतीत सुषुप्ति का प्रत्यक्ष अनुभव संभव नहीं हैं। अतीत वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता हैं । (३६४) यदि कहा जाये कि जाग्रत्काल में "मैं सो गया था" इस रुप से सुषुप्ति का प्रत्यक्ष हो सकता न होने पर भी उसकी अनुमिति हो सकती हैं। मन का लय और अवस्थाअज्ञान इन दो कारण सुषुप्ति होती हैं। जाग्रत्काल में जाग्रद्ज्ञान द्वारा अवस्थाअज्ञान नष्ट हो गया होता है, और जो नष्ट हो गया हो उसका प्रत्यक्ष होगा नही। मनोलय भी जाग्रत्काल में नष्ट हो गया होता हैं। मन की अभिव्यक्ति में ही जाग्रद्दशा होती हैं । मन लीन हो तो जाग्रद्दशा नहीं हो सकती । वैसे ही, मनोलय स्वयं प्रत्यक्षयोग्य वस्तु नहीं हैं। इसलिए मनोलय विद्यमान हो तो भी उसका प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता। उपरांत, जाग्रद्दशा में मन का उत्थान होने से मनोलय भी नष्ट हो जाता हैं। इसलिए जाग्रत्काल में सुषुप्ति का प्रत्यक्ष सर्वथा असंभव हैं । जाग्रत्काल में सुषुप्ति का प्रत्यक्ष न होने पर भी अनमिति हो सकती हैं । (३६५) ऐसा नहीं कहा जा सकता. क्योंकि जाग्रतकाल में सषप्ति का अनमान करते
__ (३६२) न्यायरत्नावली, पृ. ६२७ (३६३)...न, ज्ञानस्योत्पत्त्युत्तरं प्रत्यक्षतामते हि तादृशयुक्तत्वायुक्तत्वविचारः न तु तस्य साक्षिवेद्यत्वमते पूर्वानुपस्थितस्यापि ज्ञानत्वादेरपि भानस्वीकारादिति ध्येयम् । न्यायरत्नावली, पृ. ४२२ (३६४)...अन्त:करणोपरागकालीनानुभवजन्यत्वाभावाच्च न तत्तोल्लेखाभावेऽपि स्मरणत्वानुपपत्तिः । स्मरणे तत्तोल्लेखनियमाभावाच्च जाग्रद्दशायामस्वाप्समित्यनुभवानुपपत्तेः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२०-४२२ (३६५)...लिङ्गाभावेनाश्रयासिद्ध्या चानुमानस्यासम्भवात् । सिद्धान्त बिन्दु, पृ. ४२७ ...ननु जागरे सुषुप्तेः प्रत्यक्षं मास्तु, अवस्थाऽज्ञानं मनोलयश्चेति द्वयं हि सुषुप्तिः, तत्राद्यं जागरकालीनधिया नष्टत्वात् द्वितीयं चायोग्यत्वात् नष्टत्वाच्च न प्रत्यक्षम् अनुमितिस्तु स्यात् । न्यायरत्नावली, पृ. ४२२-४२३ For Personal & Private Use Only
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