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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन होता हैं। जैसे अभाव और ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्षवेद्य नहीं हैं, वैसे अज्ञान भी निर्विकल्पक प्रत्यक्षवेद्य नहीं हैं। सुप्तोत्थित पुरुष को “मैं कुछ भी जानता नहीं था " ऐसी अज्ञान की जो स्मृति होती हैं उसमें अज्ञान का सविषयकत्व और अज्ञानत्व ये दो धर्म से विशिष्टरुप से ही स्मरण होता हैं। इसलिए इस स्मृति का कारण जो अनुभव हैं, वह भी सविषयकत्व और अज्ञानत्व धर्मद्वयविशिष्ट अज्ञानविषयक ही हो, यह अवश्य स्वीकार करना चाहिए । इसलिए सुषुप्तिकाल में अज्ञान की अनुभूति भी उक्त धर्मद्वय से विशिष्टरूप से ही होती हैं और इसलिए वह सविकल्पक अनुभव ही हैं । (३५९) ४३७ यहाँ कोई आपत्ति देते हैं कि, सुषुप्तिकाल में अहंकार न होने से सुषुप्तिकाल में सविकल्पक अनुभव होना किस तरह से संभव होगा ? इसके समाधान में न्यायरत्नावलीकार आगे नीचे बताये अनुसार बताते हैं । सुषुप्ति में सविषयकत्व और अज्ञानत्व ये दो धर्म का संसर्ग अज्ञान में अवश्य भासित होता हैं । ये दो धर्मो के संसर्ग से अतिरिक्त दूसरा कोई संसर्ग सुषुप्तिकाल में अज्ञान में भासित नहीं होता हैं। इन दो धर्मो के संसर्ग के सिवा दूसरे किसी भी धर्म का संसर्ग प्रतीत होता हो, तब ही अहंकार की अपेक्षा रहेगी। अहंकार न होने से उक्त दो धर्मो के संसर्ग के सिवा अन्य कोई भी संसर्ग अर्थात् देशकालादि का संसर्ग या साक्षी के साथ अज्ञान का संसर्ग सुषुप्तिदशा में अज्ञान में भासित होना संभवित नहीं हैं। अहंकाररुप कारण न होने से वे दूसरे संसर्ग भासित होना संभव नहीं हैं। यह बात अद्वैतसिद्धि की टीका लघुचन्द्रिकामें (पृ. ५५८) कही गई हैं । ( ३६०) यहाँ आपत्ति यह दी गई हैं कि, व्यवसायात्मक ज्ञान होने के बाद जब ज्ञान का अनुव्यवसायात्मक प्रत्यक्ष हो तब सविषयकत्वरुप में ज्ञान का प्रत्यक्ष हो सके, क्योंकि व्यवसायज्ञान द्वारा विषय पहले उपस्थित हुआ हैं। इसलिए सविषयकत्वप्रकार से ज्ञान का प्रत्यक्ष हो सकता हैं । परंतु जैसे सविषयकत्व धर्म ज्ञान में प्रकारीभूत हो के भासित होता हैं। इस प्रकार ज्ञान के प्रत्यक्ष में सविषयकत्व और ज्ञानत्व ये दो धर्म प्रकारीभूत होकर भासित होते हैं । विषय प्रथम उपस्थित हुआ होने से सविषयकत्वधर्मप्रकारक ज्ञान हो सकता हैं, परन्तु ज्ञानत्वधर्म तो पहले उपस्थित हुआ नही हैं तो फिर पहले अनुपस्थित ऐसा ज्ञानत्वधर्म ज्ञान में प्रकारीभूत होकर किस तरह से भासेगा अर्थात् अनुपस्थित ज्ञानत्वधर्मप्रकारक ज्ञान का प्रत्यक्ष किस तरह से होता हैं ? इसलिए, कोई कोई तार्किक ने ऐसा कहा हैं कि, ज्ञान का प्रत्यक्ष नरसिंहाकार होता हैं अर्थात् ज्ञान का प्रत्यक्ष सविकल्पक भी होता हैं और साथ साथ निर्विकल्पक भी होता हैं । विरुद्धोभयात्मक होने से उस प्रत्यक्ष को नरसिंहाकार कहा गया हैं । प्रत्यक्ष सविषयकत्वांश से सविकल्पक और ज्ञानत्वांश से निर्विकल्पक हैं । ( ३६१ यह मत उचित नहीं लगता हैं। ज्ञानत्वांश से ज्ञान का प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होने से "ज्ञान को मैं जानता हुँ” ऐसा ( ३५९ )...न । यथाऽभावस्य प्रतियोग्यनुयोगिविशिष्टत्वाभावत्वरूपाभ्यामेव ज्ञानस्य सविषयकत्वज्ञानत्वाभ्यामेव च प्रत्यक्षे भानं तथैवाज्ञानस्य सविषयकत्वाज्ञानत्वाभ्यामेव प्रत्यक्षे भानं न तु शुद्धाज्ञानस्य । तयोरिव तस्यापि निर्विकल्पकावेद्यत्वात् । किञ्च तदुभयरूपविशिष्टत्वेनाज्ञानस्मृतिः तादृशीमेव स्वकारणीभूतामविद्यावृत्ति कल्पयति । न्यायरत्नावली, पृ. ४२१ (३६० ) एवं चाज्ञानत्वादिसंसर्गान्यसंसर्गविषयकवृत्तावेवाहङ्कारस्य हेतुत्वं कल्प्यम् । न्यायरत्नावली, पृ. ४२१ (३६१ ) ननु ज्ञानस्य प्रत्यक्षे सविषयकत्वप्रकारकत्वनियमो युक्तः, विषयस्य पूर्वमुपस्थितत्वात् । ज्ञानत्वप्रकारकत्वनियमस्त्वयुक्तः, तस्य पूर्वमनुपस्थितत्वात् । अत एव सविषयकत्वांशे सविकल्पं ज्ञानत्वांशे निर्विकल्पकं नृसिंहाकारं ज्ञानस्य प्रत्यक्षं नव्यतार्किकैरुच्यते इति चेत् । न्यायरत्नावली, पृ. ४२१-४२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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