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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
इसके उत्तर में अद्वैतसिद्धि में कहा हैं कि, सुषुप्ति में अज्ञान के निर्विकल्पक अनुभव से जन्य ऐसा सुप्तोत्थित पुरुष को सविकल्पक स्मरण नहीं हो सकता । स्मरण किये जाते अज्ञान में जो सविषयकत्व और अज्ञानत्व (ज्ञानविरोधित्व)धर्म का वैशिष्ट्य भासित होता हैं, वह सुषुप्तिकालीन अनुभवजन्य नहीं हैं । उक्त धर्मद्वय का वैशिष्ट्यांश स्मरण का विषय नहीं हैं परन्तु स्मृतिकालीन अनुभव का विषय हैं । अज्ञानस्वरुप की ही स्मृति होती हैं, जब कि वैशिष्ट्यांश तो सुप्तोत्थित पुरुष को उत्थानकाल में महसूस होता हैं । (३५७)
अद्वैतसिद्धिकार के इस प्रकार के समाधान के विषय में न्यायरत्नावलीकार श्रीब्रह्मानन्द सरस्वती नीचे बताये अनुसार आपत्ति देते हैं। - अद्वैतसिद्धिकार का यह समाधान योग्य नहीं लगता हैं, क्योंकि सुषुप्तिदशा में अनुभव में आता अवस्थाअज्ञान जाग्रद्दशा में नही होता हैं । अनेकविषयविशेषित अवस्थाअज्ञान जाग्रत्काल में अनेकविषय का ज्ञान होने से संभवित नहीं हैं। अज्ञान ज्ञाननिवर्त्य हैं। सुषुप्तिदशा में और जाग्रद्दशा में मूलाज्ञान अभिन्न होता हैं । मूलाज्ञान शुद्धचिन्मात्रविषयक हैं और तत्त्वज्ञानविनाश्य हैं। तत्त्वज्ञान न हो तब तक मूलाज्ञान स्थिर रहता हैं, नाश नहीं होता हैं । परन्तु अवस्थाअज्ञान का वैसा नहीं हैं। अवस्थाअज्ञान का विषय शुद्ध चैतन्य नहीं हैं, वह अनेकविषयक हैं। "मैं कुछ जानता नहीं था'' ऐसा जो अज्ञान भासित होता हैं वह मूलाज्ञान नहीं हैं। वह अज्ञान अनेकविषयक होने से अवस्थाअज्ञान हैं, "कुछ (किञ्चित्)" पद द्वारा अनेकविषय ही कहे गये हैं। अज्ञात अनेकविषय अवस्थाअज्ञान के निरुपक हैं। अज्ञात शुद्धचैतन्य ही मूलाज्ञान का निरुपक हैं। और अज्ञात कुछ खास विशेष विषय तुलाज्ञान का निरुपक हैं । अर्थात् अज्ञात घट या पट, घटविषयक या पटविषयक तुलाज्ञान का निरुपक हैं। अज्ञात अनेकविषयविशेषित अज्ञान ही अवस्थाअज्ञान हैं। "मैं कुछ जानता ही नहीं था" इस प्रकार उल्लेखित अज्ञान मूलाज्ञान भी नहीं हैं या तुलाज्ञान भी नहीं हैं परन्तु अवस्थाअज्ञान हैं । अनेकविषयविशेषित अवस्थाअज्ञान, जो सुषुप्तिदशा में अनुभव में आता था वह, जाग्रत्काल में विषय का ज्ञान होने से नहीं रह सकेगा। सुषुप्ति में अज्ञात अनेकविषय में से कुछ विषय का ज्ञान जाग्रदशा में होता हैं। इसलिए सुषुप्तिदशा में अनुभव में आता अवस्थाअज्ञान जाग्रद्दशा में विद्यमान नहीं होता है। जो विद्यमान न हो उसका अनुभव भी साक्षी नहीं कर सकेगा। साक्षी विद्यमानमात्रग्राही हैं। साक्षी स्वसंसृष्ट (स्वसन्निकृष्ट) वस्तु का ही प्रकाशक बनता हैं। जाग्रत्काल में साक्षी अतीत अवस्थाअज्ञान के साथ संसृष्ट नहीं होता हैं। इसलिए सुषुप्तदशा में अनुभूत और जाग्रत्काल में अतीत अज्ञान में सविषयकत्व और अज्ञानत्व धर्मद्वय का वैशष्ट्य जाग्रत्काल में साक्षी ग्रहण किस तरह से करेगा ?(३५८)
ऐसी आपत्ति के उत्तर में न्यायरत्नावलीकार ने नीचे बताये अनुसार कहा हैं। - अभाव का प्रत्यक्ष प्रतियोगी और अनुयोगी इन दोनों से विशिष्टरुप से और अभावत्व विशिष्ट रुप से होता हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान में भासित होता अभाव नियतरुप से प्रतियोगी-अनुयोगीविशिष्टरुप से और अभावत्वधर्मविशिष्टरुप से भासित होता हैं । उपरांत ज्ञान के प्रत्यक्ष में ज्ञान भी सविषयकत्व और ज्ञानत्व ये दो धर्म से विशिष्टरुप से भासित होते हैं। अभाव का प्रत्यक्ष और ज्ञान का प्रत्यक्ष नियतरुप से सविकल्पक होता हैं, परंतु निर्विकल्पक होता नहीं हैं। उसी तरह से अज्ञान का प्रत्यक्ष भी सविषयकत्व और अज्ञानत्व ये दो धर्मो से विशिष्टरुप से ही होता हैं अर्थात् अज्ञान का प्रत्यक्ष भी उक्त धर्मद्वय से विशिष्टरुप से सविकल्पक होता हैं परन्तु निर्विकल्पक नहीं होता हैं । शुद्ध अज्ञान का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष नहीं
(३५७) उक्तवैशिष्ट्यांशे न स्मृतित्वं किन्त्वनुभवत्वमिति ... ! न्यायरत्नावली, पृ. ४२१ अद्वैतसिद्धि, पृ. ५५८ ( ३५८) इत्यस्याद्वैतसिद्ध्युक्तस्य (अद्वैतसिद्धि, पृ. ५५८) स्वीकारेऽपि अवस्थाऽज्ञानाकारा वृत्तिरिति मूलासङ्गतिः, स्मृतिकाले स्मर्यमाणस्यावस्थाऽज्ञानस्य उच्छिन्नत्वेन तत्रोक्तवैशिष्ट्यस्य साक्षिणो भानासम्भवादिति चेत् ...। न्यायरत्नावली, पृ. ४२१
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