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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४३५ हैं। इसलिए सुषुप्तिकाल में कोई भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता हैं। नैयायिक यह सब किस प्रमाण के अनुसार कहते हैं ये तो वे ही जाने । उपनिषद् में पुरीतत् नाडी का उल्लेख हैं, परंतु वह त्वक्सहित हैं या त्वग्रहित हैं, यह बात किसी भी उपनिषद् में नहीं हैं और मन के नित्यत्व के विषय में भी कोई प्रमाण नहीं हैं। उल्टा "तस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च" इत्यादि श्रुति (मुण्डकोपनिषद् २-१-३) द्वारा मन जन्य सिद्ध हुआ हैं। जो हो वह, सुप्तोत्थित पुरुष के स्मरण में "तत्ता'' का उल्लेख नहीं होता हैं, "तत्ता'' का उल्लेख न करते हुए स्मरण नहीं हो सकता - ऐसी शंका के समाधान में श्रीमधुसूदन सरस्वती नीचे बताये अनुसार कहते हैं। अन्तःकरण के उपराग के समय अर्थात् मन की विद्यमानता की दशा में जो अनुभव होता हैं वही अनुभव से जन्य स्मृत्ति में "तत्ता" का उल्लेख होता हैं। सुषुप्तिकाल में तो मन अपने उपादानकारण में अर्थात् अविद्या में विलीन हो जाता हैं। इसलिए सुषुप्तिकालीन अनुभव यह अन्तःकरणोपरागकालीन अनुभव नहीं हैं। इसलिए ही सौषुप्त अनुभव से में "तत्ता" का उल्लेख नहीं होता हैं । अभिप्राय यह है कि, सुषुप्तिदशा में अहंकार न होने से देशकालविशिष्टरुप में अज्ञानादि का सविकल्पक ज्ञान सुषुप्तिदशा में नहीं हो सकता हैं । देशकालविशिष्टविषयक सविकल्पक अनुभव से जन्य स्मृति में ही "तत्ता' का उल्लेख होता हैं । सुषुप्तिदशा में अज्ञान का देशकालविशिष्टरुप में अनुभव नहीं हो सकता हैं, क्योंकि सुषुप्तिदशा में अन्त:करण (मन) का लय हो गया होता हैं ।(३५५) सौषुप्त अनुभव में अज्ञान का देशादिवैशिष्ट्य भासित नहीं होता हैं, अहंकाररुप कारण न होने से देशादिविशिष्टरुप से अज्ञान का सविकल्पक अनुभव नहीं होता हैं, यही अद्वैतवेदांतीयों ने कहा हैं। इसके सामने आपत्ति दी जाती हैं कि, सुषुप्ति में यदि सविकल्पक ज्ञान हो सकता न हो तो सुषुप्ति में होते अज्ञान के अनुभव में सविषयकत्व और ज्ञानविरोधित्व धर्मो से विशिष्ट ऐसा अज्ञान भासित न हो, यही उचित हैं। परंतु सुषुप्तिकालीन अज्ञानानुभव में सविषयकत्वादि धर्म से विशिष्ट अज्ञान भासित होता हैं इसलिए सुषुप्ति में सविकल्पक ज्ञान स्वीकार करना चाहिए। परंतु अहंकाररुप कारण न होने से सुषुप्तिदशा में होते अज्ञानानुभव में सविषयकत्व और ज्ञानविरोधित्व धर्मो से विशिष्ट अज्ञान का भासित नहीं होना ही उचित हैं। यहाँ यदि अद्वैतवेदान्ती इष्टापत्ति कहे अर्थात् यदि वे ऐसा कहे कि, सुषुप्तिदशा में अज्ञानानुभव में अज्ञान स्वरुपतः ही भासित होता हैं, सविषयकत्वादि धर्मोसे विशिष्ट अज्ञान भासित नहीं होता है, तो आपत्ति यह आयेगी कि, सुप्तोत्थित पुरुष को "मैं कुछ जानता नहीं था" ऐसी स्मृति भी नहीं हो सकती। परंतु "मैं कुछ जानता नहीं था" ऐसी स्मृति होती हैं, ऐसा कहने से तो स्मर्यमाण अज्ञान सविषयकत्व और ज्ञानविरोधित्व रुप में ही प्रतीत होता हैं ऐसा स्वीकार करना ही पडेगा। "कुछ (किञ्चित्)" पद द्वारा अज्ञान का सविषयकत्व और "मैं जानता नहीं था (नावेदिषम्)" पद द्वारा ज्ञानविरोधित्व प्रतीत होता हैं। सुषुप्ति में अज्ञान स्वरुपतः अनुभूत होता हैं, ऐसा स्वीकार करे तो अज्ञान का सविषयकत्व और ज्ञानविरोधित्वरुप में स्मरण नहीं हो सकता हैं । इसलिए सुप्तोत्थित पुरुष की स्मृति सविषयकत्वादि धर्म के वैशिष्ट्य के उल्लेखवाली होने से सुषुप्तिदशा में भी अज्ञान का अनुभव सविकल्पक ही हुआ स्वीकार करना चाहिए ।(३५६) (३५५) अन्त:करणोपरागकालीनानुभवजन्यत्वाभावाच्च न तत्तोल्लेखाभावेऽपि स्मरणत्वानुपपत्ति:... | सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२०-४२२ । अहङ्काराभावेन कालदेशविशिष्टरूपेणाज्ञानादेरननुभवात् तेन रूपेण न स्मरणम्... । न्यायरत्नावली, पृ. ४२० (३५६) ननु सौषुप्तानुभवे यदि अज्ञानांशे देशादिवैशिष्ट्यं न भाति अहङ्काररूपकारणाभावात् तहि सविषयकत्वाज्ञानत्वयोरपि वैशिष्ट्यं तत्र न स्यात् । इष्टापत्तौ च न किञ्चिदवेदिषमिति स्मृतौ तदुल्लेखानुपपत्तिः । न्यायरत्नावली, पृ. ४२०-४२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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