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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
की सत्ता आवश्यक हैं। परंतु स्वाप्नवृत्ति का आश्रय मन नहीं हैं, स्वाप्नवृत्ति अविद्यावृत्ति हैं और अविद्यावृत्ति तो अविद्या में ही आश्रित हैं। परंतु यह ध्यान में रखना कि, मन न हो तो यह स्वाप्न वृत्ति भी न हो । मन का लय होने से स्वाप्न अविद्यावृत्ति नहीं होती हैं। इसलिए मन स्वाप्न वृत्ति का निमित्त कारण होने पर भी ऐसा कहा जा सकता हैं कि मन स्वाप्नवृत्तिरुप कार्यकाल में वर्तमान रहकर उसका कारण बनता हैं । ऐसा न कहे तो आपत्ति आये । कौन सी ? सुषुप्ति की अव्यवहित पूर्व क्षण में तो मन होता हैं ही, इसलिए सुषुप्ति काल में मन के कार्यभूत सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति की आपत्ति आयेगी। सुषुप्ति की अव्यवहित पूर्वक्षण में सविकल्पक परामर्श हो सकता हैं, इसलिए सुषुप्तिक्षण में सविकल्पक अनुमित्ति की आपत्ति आयेगी ।(३५०) इस तरह से सुषुप्तिक्षण में अनुमिति होने से सुषुप्ति में जाग्रत्दशा की आपत्ति आयेगी।अर्थात् सुषुप्ति का अभाव ही हो जायेगा ।(३५१) अनुमिति मात्र सविकल्पक ज्ञान हैं। निर्विकल्पक अनुमिति संभवित ही नहीं हैं। परोक्षानुभव निर्विकल्प होता ही नहीं हैं। फिर भी सविकल्पक अनुमिति ऐसा जो कहा जाता हैं, वह तो बोध की सुविधा के लिए कहा जाता हैं।
निष्कर्ष यह हैं कि, संसर्गविषयक वृत्ति में मन निमित्तकारण होता हैं और मन कार्यकाल के अस्तित्व में रहकर ही कारण बनता हैं । इसलिए सुषुप्ति की आद्यक्षण में संसर्गविषयक कोई भी वृत्ति हो ही नहीं सकती।
और इसलिए ही अज्ञानविशिष्टसाक्षिविषयक ज्ञान भी सुषुप्ति में नहीं होता हैं । इस प्रकार सुखाभिन्नसाक्षिविषयक ज्ञान भी सुषप्ति में नहीं होता हैं, क्योंकि यह ज्ञान भी संसर्गविषयक होने से सविकल्पक हैं। सुषुप्ति
मी संसर्गविषयक होने से सविकल्पक हैं। सुषुप्ति में सविकल्पक ज्ञान संभवित ही नहीं हैं, निर्विकल्पक ज्ञान ही संभवित हैं । (३५२) __ प्रलयकाल में मूलाज्ञान होने पर भी अज्ञानाकार अविद्यावृत्ति न होने से प्रलय को सुषुप्तिदशा नहीं कही जा सकती। प्रलय के बाद अज्ञान का स्मरण होता न होने से स्मरण की जनक अविद्यावृत्ति प्रलयकाल में स्वीकार नहीं की गई हैं। सुप्तोत्थित पुरुष को "मैं सुख से सोया था" "मैं कुछ जानता नहीं था' ऐसा स्मरण होता होने से स्मरणजनक अविद्यावृत्तिरुप अनुभव सुषुप्तिकाल में स्वीकार किया गया हैं। अनुभव न हुआ हो तो स्मरण नहीं हो सकता ।(३५३) __ इसके सामने नीचे बताये अनुसार आपत्ति दी जाती हैं। प्रत्येक स्मरण में "तत्ता" का उल्लेख अवश्य होता हैं। घट का स्मरण "वह घट" ऐसा होता हैं । "यह घट" ऐसे अनुभव से जन्य "वह घट'' ऐसा स्मरण होता हैं । सुषुप्तिकालीन अनुभव से जन्य जो स्मरण सुप्तोत्थित पुरुष को होता हैं, उसमें "तत्ता'' का उल्लेख नहीं होता हैं, और "तत्ता'' के उल्लेखरहित स्मरण होता हैं ऐसा कहना योग्य नहीं हैं। जिस ज्ञान में "तत्ता''का उल्लेख नहीं हैं वह ज्ञान स्मरण नहीं हैं। इसलिए सुप्तोत्थित पुरुष को होता "तत्ता" के उल्लेख बगैर का ज्ञान स्मरण किस तरह से हो सकता हैं ? सुप्तोत्थित पुरुष का ज्ञान स्मरणात्मक न हो तो उसके लिए सुषुप्तिकालीन अनुभव स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या रहेगी? जैसे नैयायिक सुषुप्तिकाल में निर्विकल्पक अनुभव भी स्वीकार नहीं करते वैसे। नैयायिको के मतानुसार जन्य सभी ज्ञान का कारण त्वगिन्द्रिय के साथ मन का संयोग हैं। सुषुप्तिकाल में त्वगिन्द्रय के मन का संयोग नहीं होता हैं, इसलिए सुषुप्तिकाल में कोई भी ज्ञान उत्पन्न नही हो सकता हैं ।(३५४) नैयायिक कहते हैं कि सुषुप्तिकाल में नित्य मन पुरीतत् नाम की नाडी में अवस्थान करता हैं और यह नाडी त्वगिन्द्रियरहित
(३५०) ...सुषुप्तिपूर्वक्षणे लिङ्गपरामर्शादिसत्त्वे संसर्गानुमित्यादेर्दुर्वारत्वाच्च । न्यायरत्नावली, पृ.४१९ ( ३५१)...सुषुप्त्यभावप्रसङ्गाच्च । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१८-४१९ (३५२)न्यायरत्नावली, पृ. ४१८-४१९ (३५३) अत एव वृत्तिरूपस्योपलम्भस्याभावान्न प्रलयेऽतिव्याप्तिः । तत्र तत्कल्पनाबीजाभावात् । इह च सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदवेदिषमिति सुप्तोत्थितस्य परामर्शात् । अननुभवे च परामर्शानुपपत्तेः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१९-४२० (३५४) सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४२० । न्यायरत्नावली, पृ. ४२०
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