________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
४३३
संसर्गविषयक नहीं होता हैं। विशेषणविशेष्य के संसर्गविषयक ज्ञान सविकल्पक ज्ञान हैं। सविकल्पक ज्ञान में अहंकार हेतु हैं । स्थूलावस्थ मन को ही अहंकार कहते हैं। स्थूलावस्थ मन सुषुप्ति में नहीं होता हैं। सुषुप्तिदशा में मन सूक्ष्मरुप से अर्थात् संस्काररुप से अपने उपादान ऐसी अविद्या में लीन होता हैं। सुषुप्तिदशा में अहंकार होता नहीं हैं, इसलिए विशिष्टविषयक वृत्ति सुषुप्ति में नहीं हो सकती हैं। स्वप्नदशा में मन का लय होता नहीं हैं इसलिए विशिष्टविषयक वृत्ति अर्थात् सविकल्पक वृत्ति स्वप्नदशा में होती हैं। संसर्गविषयक वृत्ति में अहंकार निमित्तकारण हैं। निमित्तकारणता में उपादान से कुछ विलक्षणता हैं। कार्य की अव्यवहित पूर्वकाल में होना कारण के लिए जरुरी हैं। उपादानकारण कार्य की अव्यवहित पूर्वकाल में अस्तित्व रखते हैं, वैसे ही, कार्यकाल में भी अस्तित्व रखते हैं। उपादान कार्यकाल में अस्तित्व रखते हैं परन्तु वह कारण के रुप में अस्तित्व रखता नहीं हैं किंतु कार्य के आश्रय के रुप में ही अस्तित्व रखता हैं। भावरुप कार्य अपने उपादान कारण में आश्रित होता हैं। कार्य की उत्पत्ति हो तब और कार्य की उत्पत्ति के बाद उपादान न हो तो उपादेय कार्य किस में आश्रित होगा? इसलिए , कारणत्व के निर्वाह के लिए कार्य की अव्यवहित पूर्व क्षण में और कार्य का आश्रय बनने के लिए कार्यकाल में भी उपादान होता हैं। केवल कार्यत्वनिर्वाह के लिए उपादान का कार्यकाल में होना आवश्यक नहीं हैं। अनुत्पन्न कार्य असिद्ध हैं, असिद्ध कार्य अपनी सिद्धि के लिए ही कारण की अपेक्षा रखता हैं। कार्य सिद्ध होने पर कार्य को कारण की अपेक्षा नहीं रहती हैं। कार्योत्पत्तिकाल में कार्य सिद्ध होता हैं, उत्पत्ति के बाद भी कार्य सिद्ध होता हैं, सिद्ध कार्य स्वसाधक कारण की अपेक्षा नहीं रखता हैं। सिद्ध का कोई साधक नहीं होता हैं । असिद्ध ही साधकसापेक्ष होता हैं। सिद्ध कार्य स्वसिद्धिकाल में भी उपादान की अपेक्षा रखता हैं उसका कारण तो यह हैं कि उपादान उसका अर्थात् कार्य का आश्रय हैं। कार्य का आश्रय बनने के लिए उपादान कार्यकाल में अपेक्षित होता हैं। साधक बनने के लिए उपादान कार्यकाल में अपेक्षित ही नहीं हैं। कार्यकाल में तो कार्य सिद्ध हो गया होता हैं। इसलिए उसको साधक की अपेक्षा होती ही नहीं हैं । नव्यनैयायिको ने निमित्तकारण को कोई कोई स्थान पे कार्यकाल में अस्तित्व में रहकर कारण बनता बताया हैं, परंतु यह बात अत्यन्त असंगत हैं। असाधक भी कारण हो इसके जैसी विचित्र बात दूसरी कौन हो सकती हैं ? उत्पादक ही कारण हैं । जो उत्पादक नहीं हैं वह कारण नहीं हैं। उत्पन्न का कोई उत्पादक नहीं होता हैं। उत्पन्न कार्य की स्थिति के लिए कार्यकाल में जो अपेक्षित होता हैं वह कार्य के कारण के रुप में अपेक्षित नहीं होता हैं, परन्तु कार्य की स्थिति के लिए ही अपेक्षित होता हैं। कार्य की स्थिति के लिए जो अपेक्षित हो उसको कार्य का उत्पादक मानना यह नितान्त असंगत हैं। कार्यकाल में वर्तमान हकर आधार बनता हैं. ऐसा कहा जा सकता हैं। निमित्तकारण कार्य का आधार (आश्रय) नहीं हैं। इसलिए निमित्तकारण की कार्यकाल में सत्ता कार्य को अपेक्षित ही नहीं हैं।(३४८) निमित्तकारण के नाश से किसी जगह कार्य का नाश होने से किसी ने कह दिया कि निमित्तकारण की कार्यकाल में सत्ता कार्य को अपेक्षित हैं। उदाहरणार्थ, अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्वादि संख्या का नाश होता हैं । यह तो वैशेषिको की प्रक्रियामात्र हैं। वह वैशेषिको की प्रक्रियामात्र होने से मीमांसक ऐसी प्रक्रिया का स्वीकार नहीं करते हैं । (३४९)
जो हो वह, मन सविकल्पक वृत्ति का कारण हैं परन्तु वह कार्यकाल में वर्तमान होने से ही सविकल्पक वृत्ति का कारण हैं। साधारणतः मन सविकल्पक वृत्ति का आश्रय होता हैं । इसलिए सविकल्पक वृत्ति हो तब भी मन
(३४८) अहङ्काराभावाच्च नैका विशिष्टवृत्तिः ... । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१८ । तथा च संसर्गविषयकवृत्तौ अहङ्कारत्वेन हेतुता । सा च हेतुता निमित्ततया कार्यसहभावेनैवेति । न्यायरत्नावली, पृ. ४१८ (३४९) ननु निमित्तकारणापायेऽपि कार्यमपैति यथा वैशेषिकाणामपेक्षाबुद्धिविनाशे द्वित्वादिविनाशः । विवरण, विजयनगर सं., पृ.६२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org