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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन भी तीन आकार स्वीकार किये गये हैं । आकारत्रयोपहित रुप से एक ही वृत्ति को तीन वृत्ति कही गई हैं । ( ३३९) यही बात अद्वैतसिद्धि में “सुषुप्त्याख्या एकैव वा वृत्तिः इत्यन्यदेतत् " द्वारा श्रीमधुसूदन सरस्वती ने की हैं। (३४०) ४३१ यहाँ विशेष ध्यान में लेने जैसा यह हैं कि, सिद्धान्तबिंदु में श्रीमधुसूदन सरस्वती ने कहा हैं कि सुषुप्ति में अज्ञान की उपलब्धि होती हैं। परंतु सुषुप्ति में उन्होंने अवस्था अज्ञानाकार वृत्ति स्वीकार की हैं, मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति स्वीकार नहीं की हैं। महत्व की बात तो यह हैं कि, पहले उन्होंने अवस्थाअज्ञान की बात भी नहीं की हैं । यहाँ प्रश्न होता हैं कि, सुषुप्ति में मूलाज्ञानविषयक और अवस्था अज्ञानविषयक दो वृत्ति होती हैं या मूलाज्ञानविषयक एक ही वृत्ति होती हैं ? इसके उत्तर में कहना चाहिए कि मूलाज्ञान और अवस्था अज्ञान ये उभयविषयक दो अज्ञानवृत्ति सुषुप्ति में माननी चाहिए। यहाँ पूछा जाता हैं कि, सुषुप्ति में मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति द्वारा ही सुप्तोत्थित पुरुष को ‘“मैं जानता नहीं था " ऐसा जो स्मरण होता हैं उसका खुलासा हो सकता हैं । इस स्मरण के खुलासे के लिए सुषुप्ति में अवस्थाअज्ञानाकार अविद्यावृत्ति मानने की जरुरत क्या हैं ? (३४१) 4 इसके उत्तर में कहना चाहिए कि, अवस्था अज्ञानाकार अविद्यावृत्ति स्वीकार न की जाये तो केवल मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति के द्वारा “मैं कुछ जानता नही था' ऐसी अनेक पदार्थ विषयक अज्ञान को स्मृत्ति नहीं हो सकती । अनेक विषयविशेषित अज्ञान मूलाज्ञान नहीं हैं । मूलाज्ञान शुद्धचिन्मात्रविषयक हैं । मूलाज्ञान अनेकविषयविशेषित नहीं हैं। उपरांत, "मैं कुछ (किंचित्) जानता नहीं था'' ऐसी स्मृति में "कुछ (किंचित्)" पद द्वारा प्रतिपादित अनेकविषयविशेषित अज्ञान ही स्मर्यमाण होता हैं यह समज में आये, ऐसी बात हैं । इसलिए अनेकविषयविशेषित अज्ञान की स्मृति करने लिए अनेकविषयविशेषित अवस्था अज्ञान का अनुभव सुषुप्ति में स्वीकार करना चाहिए। और इसलिए ही श्रीमधुसूदन सरस्वती ने सुषुप्तिदशा में अवस्था अज्ञान की बात की हैं। अनेकविषयविशेषित अज्ञान की स्मृति के लिए अवस्था अज्ञानाकार अविद्यावृत्ति सुषुप्ति में अवश्य स्वीकार करनी चाहिए। अवस्थाअज्ञानाकार अविद्यावृत्ति सुषुप्ति में स्वीकार की हो तो भी मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति भी अवश्य स्वीकार करनी चाहिए । प्रलयकाल के सिवा अन्य काल में सर्वदा मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति होती हैं ही । इसलिए सुषुप्तिदशा में भी मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति होनी ही चाहिए।(३४२) वैसे ही, सुप्तोत्थित पुरुष को “मैं मूढ था” ऐसा अनेक विषय से अविशेषित अज्ञान का स्मरण होता हैं। अनेक विषय से अविशेषित "मोह" पदवाच्य अज्ञान ही मूलाज्ञान हैं । सुषुप्ति में इस मूलाज्ञान का अनुभव न हो तो सुप्तोत्थित पुरुष को "मैं मूढ था " ऐसी मूलाज्ञान की स्मृति हो नहीं सकती । इसलिए, "मैं कुछ जानता नही था " ऐसी अनेक विषयविशेषित अज्ञान की स्मृति का खुलासा करने के लिए और "मैं मूढ था " ऐसी अनेकविषयविशेषित स्मृति का खुलासा करने के लिए उभय अज्ञानाकार अविद्यावृत्ति सुषुप्ति में स्वीकार करनी चाहिए। जैसे सुप्तोत्थित पुरुष को "मैं मूढ था " ऐसी मूलाज्ञानविषयक स्मृति होती हैं वैसे तत्त्वज्ञ पुरुष को भी तत्त्वज्ञान काल में "मैं मूढ था " ऐसी मूलाज्ञानविषयक स्मृति होती हैं। तत्त्वज्ञान द्वारा मूलाज्ञान की निवृत्ति होने पर भी तत्त्वज्ञान से पूर्व तो मूलाज्ञान का अनुभव था । यह अनुभव जन्य संस्कार द्वारा तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त पुरुष को "मैं मूढ था " ऐसी स्मृति होती हैं । इससे समज में आता हैं कि तत्त्वज्ञानकाल और प्रलयकाल के सिवा अन्य सर्वकाल में मूलाज्ञानाकार अविद्यावृत्ति ( ३३९ ) त्रयमिति आकारत्रयोपहितरूपभेदसम्भवादित्यभिप्रायम् । न्यायरत्नावली, पृ. ४१८ (३४० ) अद्वैतसिद्धि, पृ.५५९ ( ३४१ ) ननु मूलाज्ञानकारवृत्त्यापि नावेदिषमिति स्मरणोपपत्तेः अवस्थाऽज्ञानविषयकवृत्तिः किमित्युक्ता । न्यायरत्नावली, पृ. ४१८ ( ३४२ ) उच्यते - न किञ्चिदवेदिषमित्यनेकपदार्थविषयकज्ञानस्मृतेर्मूलाज्ञानेनानुपपत्तेः, तस्य चिन्मात्रविषयकत्वात् ।... मूलाज्ञानाकाराप्यविद्यावृत्तिः सुषुप्ताववश्यं वाच्या । प्रलयान्यकाले सर्वदैत्र तत्स्वीकारात् । न्यायरत्नावली, पृ.४१८ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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