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________________ ४३० षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन विश्रामस्थान ही सुषुप्ति हैं । (३३१) यहाँ श्रीमधुसूदन सरस्वतीने जो "कारणमात्रोपलंभ' कहा हैं, उसका अभिप्राय यह हैं कि, स्थूल और सूक्ष्म देहद्वय के अनुपलंभ से विशिष्ट ऐसा कारणोपलंभ विशेष ही कारणमात्रोपलंभ हैं। "यथाश्रुत कारणमात्र का उपलंभ" ऐसा उसका अर्थ नहीं हैं। सुषुप्ति दशा में जैसे कारणीभूत अविद्या का उपलंभ होता हैं वैसे अविद्याविषयक अविद्यावृत्ति का भी उपलंभ होता हैं । अविद्यावृत्ति कारण नहीं परन्तु कार्य हैं । साक्षिचैतन्य ही अविद्या और अविद्यावृत्ति दोनों के उपलभरुप हैं। इसलिए ही कारणोपलंभविशेष को ही "कारणमात्रोपलंभ" का अर्थ समजना चाहिए। यही बात न्यायरत्नावली में कही हैं।(३३२) श्रान्त जीव का विश्रामस्थान सुषुप्तिअवस्था हैं, ऐसा कहने का आशय यह हैं कि, मूर्छा और प्रलयादि में स्थूल और सूक्ष्म देहद्वय के अनुपलंभविशिष्ट ऐसा कारणमात्रोपलंभ हैं परंतु मूर्छा और प्रलयादि सुषुप्ति नहीं हैं क्योंकि मूर्छा और प्रलयादि अवस्था जीव का विश्रामस्थान नहीं हैं। मूर्छादि अवस्था में स्थूल और सूक्ष्म देह का उपलंभ नहीं होता हैं, अज्ञान का उपलंभ होता हैं, परंतु उसमें जीव विश्रान्त नहीं हो सकता हैं। मूर्छाभंग के बाद जीव प्रसन्नता की उपलब्धि नहीं करता हैं। इसलिए मूर्छा विश्रामस्थान नहीं हैं। उसी ही तरह, प्रलय के बाद भी सृष्टि के प्रारंभ में जीव प्रसन्नता की उपलब्धि नहीं करता हैं। इसलिए वह भी विश्रामस्थान नहीं हैं । (३३३) परंतु सुप्तोत्थित पुरुष सुषुप्ति के पहले परिश्रान्ति और सुषुप्ति के बाद विश्रान्ति का अनुभव करता हैं। सुषुप्तिदशा में जाग्रद्भोग्य और स्वप्नभोग्य पदार्थो का ज्ञान न होने पर भी सुषुप्तिदशा में साक्ष्याकार, सुखाकार और अवस्थाअज्ञानाकार तीन अविद्यावृत्तियाँ स्वीकार की गई हैं । (३३४) यह बात विवरण में भी कही गई हैं । (३३५) सुषुप्ति दशा में स्वरुपानंद का अनुभव होता हैं। अनावृत्त साक्षिचैतन्य के सुखांश का प्रकाश सुषुप्ति में होता हैं । (३३६) सुषुप्ति दशा में अज्ञान, सुख और साक्षी इन तीनो का अनुभव होता हैं। इसलिए सुप्तोत्थित पुरुष को इन तीन विषय का स्मरण होता हैं। यह बात विवरणाचार्य ने विशेषरुप से की हैं। परंतु टीकाकार श्रीपद्मपादाचार्य ने ऐसा नहीं कहा हैं। इसलिए ही विवरणाचार्य ने कहा हैं, कि टीकाकार ने जो कहा हैं, वह उन्होंने दूसरे का मत बताने के लिए ही कहा हैं। परमत का आश्रय लेकर उन्होंने ऐसा कहा होने पर भी वह उनका अपना मत नहीं हैं । (३३७) इसलिए लगता हैं कि, सुषुप्तिदशा में प्रदर्शित त्रिविध वृत्ति विवरणाचार्यने सर्वप्रथम स्पष्टरुप से कही हैं। टीकाकार श्रीपद्मपादाचार्य सुषुप्ति में सुखानुभव का स्वीकार नहीं करते हैं। उनके मतानुसार केवल दुःख के अभावमात्र का अनुभव होता हैं । दुःख का अनुभव होता न होने से सुखानुभव का व्यपदेशमात्र होता हैं। विवरणाचार्य सुषुप्ति में स्वरुपसुख का अनुभव स्वीकार करते हैं। जो हो वह, टीकाकार श्रीपद्मपादाचार्य की उक्ति उनका अपना मत नहीं बताते, परंतु केवल परमत को ही बताते हैं ऐसा विवरणाचार्य का कहना हैं । विवरण के अनुसार ही श्रीमधुसूदन सरस्वती इत्यादि आचार्यो ने सुषुप्ति में त्रिविध वृत्ति स्वीकार की हैं। सिद्धान्तबिंदु की टीका न्यायरत्नावली में कहा गया हैं कि, वस्तुतः सुषुप्ति में उक्त त्रितयविषयक समूहालंबन एक ही वृत्ति होती हैं । जहाँ समूहालंबन एक वृत्ति स्वीकार की जा सके वैसा हो वहाँ तीन वृत्तियाँ स्वीकार करने में गौरवदोष आयेगा ।(३३८) श्री मधुसूदन सरस्वती ने वृत्तित्रय की बात की हैं, उसमें उनका अभिप्राय यह हैं कि, विषय तीन होने से वृत्ति के (३३१)...सवासनस्यान्तःकरणस्य कारणात्मनावस्थाने सति विश्रामस्थानं सुषुप्त्यवस्था । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१७ (३३२) कारणमात्रोपलम्भः स्थूलसूक्ष्मरूपदेहानुपलम्भविशिष्ट: कारणोपलम्भविशेष इत्यर्थः । न्यायरत्नावली, पृ.४१७ (३३३) यथा श्रुतेऽविद्यावृत्तिरूपकार्योपलम्भस्य साक्षिणः सत्त्वादसङ्गति: मूर्छाप्रलयादिवारणाय विशेष्यदलम् । न्यायरत्नावली, पृ. ४१७ (३३४) तत्र जाग्रत्स्वप्नभोग्यपदार्थज्ञानाभावेऽपि साक्ष्याकारं सुखाकारमवस्थाऽज्ञानाकारं चाविद्याया वृत्तित्रयमभ्युपेयते । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१७-४१ (३३५) विवरण, विजयनगर सं., पृ. ५७ (३३६) अनावृतसाक्षिचैतन्यसुखांशस्य प्रकाशोपपत्तेः । विवरण, विजयनगर सं., पृ. ५६ (३३७) परमतमाश्रित्येदमुक्तं न स्वमतमिति न दोषः । विवरण, विजयनगर सं., पृ.५७ (३३८) समूहालम्बनैकवृत्त्या निर्वाहे वृत्तित्रयकल्पने गौरवात् न्यायरत्नावली, पृ.४१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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