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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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अद्वैतदीपिकाकार श्रीनृसिंहाश्रम ने भी स्वप्न के ये दो अधिष्ठान स्वीकार किये हैं। परन्तु उन्हों ने अन्तःकरणोपहित साक्षी को अर्थात् अन्तःकरणावच्छिन्न जीवचैतन्य को और मूलाज्ञानवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य को स्वप्नाध्यास के अधिष्ठानों के रुप में स्वीकार किये होने पर भी दोनों स्थान पे मूलाज्ञान ही स्वप्नाध्यास का परिणामी उपादान हैं, वे अवस्थाअज्ञान को स्वप्नाध्यास का परिणामी उपादान स्वीकार नहीं करते हैं । अन्तःकरण या अहंकार से उपहित जीवसाक्षीरुप चैतन्य अनावृतस्वभाव होने से स्वप्न में अध्यस्त गजतुरगादि साक्षात् साक्षीसम्बद्ध होते हैं, इसलिए तत् तत् पुरुष के सामने अपरोक्ष होते हैं, इस प्रकार स्वप्नाध्यास का असाधारणत्व रक्षित रहता हैं। ब्रह्मचैतन्य अधिष्ठान हो तो स्वप्नाध्यास साधारण बन जाने की आपत्ति आयेगी। इसलिए जीवसाक्षीचैतन्य ही
यास का अधिष्ठान हैं और यह पक्ष ही ज्यादा योग्य होने से उसका स्वीकार किया गया हैं। यहाँ ऐसी आशंका की जाती हैं कि, यदि जीवसाक्षीचैतन्य को स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान स्वीकार किया जाये तो स्वप्न में "यह गज" ऐसी प्रतीति न होनी चाहिए, उसके बदले "मैं गज'' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए। इस आशंका के उत्तर में कहा गया हैं कि, जीव साक्षी चैतन्य में अध्यस्त गजादि में अभेदावभास न होने से जो भेदावभास होता हैं, अर्थात् 'मैं गज" ऐसी प्रतीति के बदले "यह गज" ऐसी जो प्रतीति होती हैं, स्वप्न में साक्षीचैतन्य से अध्यस्त गजादि भिन्नरुप से जो प्रतीत होते हैं, वह भेद भी स्वप्नकल्पित हैं, स्वप्नकल्पित भेद द्वारा ही भिन्नरुप में प्रतीत होता हैं। स्वप्न गजादि तत्काल में आरोपित भेद द्वारा ही भिन्न रुप में प्रतीत होते हैं, इसलिए "मैं गज" ऐसी प्रतीति की आपत्ति नहीं आती हैं। इसके सामने कहा जाता हैं कि, फिर भी "मुज में गज'' ऐसी प्रतीति होना उचित हैं परंतु "यह गज" ऐसी स्वतंत्र प्रतीति होना उचित नहीं हैं क्योंकि स्वप्न गजादि जीवसाक्षीचैतन्य में अध्यस्त हैं । उपरांत, स्वप्न गजादि जीवसाक्षीचैतन्य देश में प्रतीत होने के बदले बाह्य देशमें प्रतीत होते हैं । इसलिए स्वप्न गजादि का अधिष्ठान जीवसाक्षीचैतन्य हो, वह उचित नहीं हैं। इसके उत्तर में कहा गया हैं कि, स्वप्न गजादि जो बाह्यदेश में प्रतीत होते हैं वह बाह्यदेश, बाह्यदेश से स्वप्न गजादि का भेद, स्वाप्न गजादि का स्वातंत्र्य और स्वातंत्र्य के साथ स्वाप्न गजादि का संसर्ग इत्यादि सब तत्काल में मायाविजृम्भित होता हैं । (३२७) ये सभी बाते सिद्धान्तबिंदु में श्रीमधसदन सरस्वतीने बराबर कही हैं । (३२८
कोई आचार्य मूलाज्ञानावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य को स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान न मानकर मनोवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य को ही स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान मानते हैं । (३२९)
प्रसंगतः स्वप्नाध्यास के विषय में कुछ विचार किया। परंतु विशेष आलोच्य विषय तो सुषुप्ति हैं । सुषुप्ति के विषय में अद्वैतसिद्धि में श्रीमधुसूदन सरस्वती ने कहा हैं कि सिद्धान्तबिंदु में मैंने इस विषय की विशद रुप में चर्चा की हैं। सुषुप्तिदशा में भावभूत अज्ञान साक्षी द्वारा अनुभूत बनता हैं। इसलिए ही सुप्तोत्थित पुरुष को अनुभूत अज्ञान का स्मरण होता हैं। सौषुप्त साक्षिप्रत्यक्ष द्वारा अज्ञान सिद्ध होता हैं। सुषुप्ति में होते अज्ञान के प्रत्यक्ष के विषय में सिद्धान्तबिन्दु में कौन-कौन सी विशेष बाते कही गई हैं, उसका विचार हम अब करेंगे।
सिद्धान्तबिंदुकार ने कहा हैं कि, कारणमात्र का उपलंभ ही सुषुप्ति हैं ।(३३०) जब वासनारहित अन्तःकरण कारणरुप में अवस्थान करता हैं तब जीव विश्रान्त होता हैं। जाग्रद्दशा में और स्वप्नदशा में श्रान्त हुए जीव का
(३२७) स्वप्नस्यानवच्छिन्नचैतन्याधिष्ठानस्य मूलाज्ञानकार्यत्वात् ।... अथवा अन्तःकरणोपहितं साक्ष्येवाधिष्ठानम् । अद्वैतदीपिका, द्वि.प., पृ. ३८३-३८५ (३२८) सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१३-४१५ (३२९) प्रतिजीवं स्वप्नाध्यासासाधारण्यं तु मनोगत-वासनानामसाधारण्यादेव । मनोऽवच्छिन्नं ब्रह्मचैतन्यमेवाधिष्ठानम्। सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१३ (३३०) कारणमात्रोपलम्भ: सुषुप्तिः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१७
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