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________________ ४२८ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन साक्षी का स्वीकार किया गया हैं। इसलिए ही साक्षी कभी अज्ञान का बाधक बनेगा ही नहीं। साक्षी अज्ञान का बाधक हो तो अज्ञान ही सिद्ध नहीं होता हैं। अज्ञान सिद्ध न होने से अज्ञान का साधक साक्षी भी सिद्ध नहीं होगा। इसलिए साक्षी को अज्ञान का बाधक स्वीकार करने से साक्षी स्वयं ही असिद्ध हो जायेगा ।(३२४) यहाँ आपत्ति यह आयेगी कि, स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्थाअज्ञान जाग्रत्कालीन ज्ञान द्वारा बाधित होने पर पुनः उसी पुरुष को स्वप्न नहीं आना चाहिए, क्योंकि स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्थाअज्ञान जाग्रतकालीन ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गया हैं। ऐसी आपत्ति असंगत हैं, क्योंकि शुक्तिज्ञान द्वारा अध्यस्त रजत का उपादान एक बार शुक्तिसाक्षात्कार द्वारा निवृत्त हो गया, तो फिर पुनः उसी पुरुष को रजताध्यास कैसे होगा? ऐसी आपत्ति भी हो सकेगी। यदि पूर्वपक्षी कहे कि, हाँ, ऐसी आपत्ति भी आ सकती हैं, तो उत्तर में कहना चाहिए कि, ऐसी आपत्ति के निराकरण के लिए ही इष्टसिद्धिकार एकविषयक अज्ञान का भी बहुत्व स्वीकार करते हैं। एक विषय में जितने ज्ञान होते हैं उसी विषय में अज्ञान भी उतने ही होगे, अज्ञान ज्ञान के समसंख्यक हैं। और यही इष्टसिद्धिकार का मत हैं। इसलिए ही उन्हों ने कहा हैं कि, "यावन्ति ज्ञानानि तावन्ति अज्ञानानि" (इष्टसिद्धि पृ.६७-६८) अद्वैतवेदांती नित्य प्रमा का स्वीकार नहीं करते हैं। उनके मतानुसार ईश्वर का ज्ञान भी नित्य नहीं हैं और प्रमा भी नहीं हैं। ईश्वर का ज्ञान मायावृत्तिरुप हैं । इस मायावृत्तिरुप ईश्वर का ज्ञान अबाधितविषयक होने से यथार्थ हैं। यथार्थता के कारण ही ईश्वर के ज्ञान को किसी स्थान पे प्रमा कहा गया हैं, परन्तु वास्तव में वह प्रमा नहीं हैं। ईश्वर का ज्ञान हमारे सुखादिज्ञानों की तरह अबाधितविषयक होने से यथार्थ हैं। जो हो वह निष्कर्ष यह हैं कि, जीवचैतन्य को स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान मानने में कोई दोष नहीं आता हैं । (३२५) ___ ब्रह्मचैतन्य को स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान मानने से भी कोई दोष नहीं आता हैं। मूलाज्ञान से अवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य ही स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान हैं और ब्रह्मसाक्षात्कार द्वारा ही स्वप्नाध्यास का उपादान मूलाज्ञान निवृत्त होता हैं। अन्यथा निवृत्त नहीं होता हैं। फिर भी, जैसे रज्जु में सर्प के भ्रम के बाद रज्जु में दंड का भ्रम होने से दंडभ्रम द्वारा सर्पभ्रम का केवल तिरोधान होता हैं (निवृत्ति नहीं), वैसे स्वप्नभ्रम के अधिष्ठान ब्रह्म का ज्ञान न होने पर भी जाग्रद्भ्रम द्वारा स्वप्नभ्रम का तिरोधान हो सकता हैं (निवृत्ति नहीं)। इसलिए ब्रह्मचैतन्य को स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान मानने से कोई दोष नहीं आता हैं ।(३२६) यदि कहा जाये कि, ब्रह्माधिष्ठानक व्यावहारिक प्रपंच जैसे सर्वसाधारण हैं, वैसे स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान भी ब्रह्म होने से स्वप्नप्रपंच भी सर्वसाधारण हो जायेगा। परन्तु स्वप्नप्रपंच साधारण नहीं हैं। वह तो तत्तत्पुरुषवेद्य होने से असाधारण हैं। इसलिए स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान ब्रह्मचैतन्य स्वीकार करने से असाधारण स्वप्नप्रपंच साधारण बन जाने की आपत्ति आयेगी। इसके समाधान में कहना चाहिए कि, प्रत्येक जीव की मनोगत वासना स्वप्नाध्यास का असाधारण कारण होने से मनोगत वासना के असाधारणत्व के कारण स्वप्नाध्यास का असाधारणत्व सुरक्षित रहता हैं। (३२४) साक्षिणश्चाविद्यानिवर्तकत्वाभाव अज्ञानसाधकत्वेनैव धर्मिग्राहकमानसिद्ध इति । सिद्धान्तबिन्दु, पृ.४११ (३२५)यावन्ति ज्ञानानि तावन्त्यज्ञानानीति चाभ्युपगमात् शुक्तिज्ञानेनेव व्यावहारिकसंघातज्ञानेनाज्ञाननिवृत्तावपि पुनरपि कदाचिद् रजतभ्रमवन्न स्वप्नाध्यासानुपपत्तिरिति जीवचैतन्यमेवाधिष्ठानमिति पक्षे न कोऽपि दोषः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४११-४१२ (३२६) यदा तु पुनर्ब्रह्मज्ञानदेवाज्ञाननिवृत्त्यभ्युपगमः तदा रज्ज्वां दण्डभ्रमेण सर्पभ्रमतिरोधानादधिष्ठानज्ञानाभावेऽपि जाग्रभ्रमेण स्वप्नभ्रमतिरो-भावोपपत्तेः ब्रह्मचैतन्यमेव स्वप्नाध्यासाधिष्ठानमिति पक्षेऽपि न कश्चिद दोषः । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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