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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४२७ उपादान अवस्था अज्ञान की बाधा नहीं होती हैं। यदि बाधा मानी जाये तो सुषुप्ति जाग्रद्दशारुप बन जाने की आपत्ति आयेगी, किस तरह से? सुषुप्तिदशा में स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्थाअज्ञान बाधित हो गया होने से नहीं है अर्थात् स्वप्न भी नहीं हैं। और जाग्रतकालीन “मैं" ऐसे आकार की वृत्ति की तरह सुषुप्तिदशा में भी "मैं' ऐसे आकार की वृत्ति होती हैं, इसलिए सुषुप्ति जाग्रद्दशारुप बन जाने की आपत्ति आ जायेगी ।(३२२) इसके उत्तर में कहना चाहिए कि, सुषुप्ति में अहमाकार' वृत्ति होती ही नहीं हैं। इसलिए स्वप्नाध्यास के उपादान अवस्था अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती हैं । स्वप्नावस्था में जो अज्ञान था, सुषुप्ति में भी वही अज्ञान होता हैं। स्वप्नावस्था में अंत:करण का लय नहीं होता हैं, जब कि, सुषुप्ति में उसका लय होता हैं। यही स्वप्न और सुषुप्ति के बीच का भेद हैं । इसलिए अन्तःकरण के लय सहित का स्वप्नाध्यास का उपादानभूत अज्ञान ही सुषुप्ति हैं । इस प्रकार सुषुप्तिकाल में स्वप्नाध्यास के उपादान अज्ञान का बाध नहीं होता हैं, परन्तु जाग्रतकाल में स्वप्नाध्यास के उपादान अज्ञान का बाध होता हैं। इसलिए स्वप्न का भी बाध होता हैं। "मैंने मिथ्या स्वप्न देखा'' ऐसा बाध सर्वानुभवसिद्ध हैं। जाग्रददशा में प्रमाणाजन्य 'अहमाकार' ज्ञान द्वारा भी स्वप्नाध्यास के उपादान अज्ञान का नाश स्वीकार करना चाहिए। 'अहम् (मैं)' ऐसा ज्ञान प्रमाणाजन्य होने पर भी सुखादिविषयक ज्ञान की तरह यथार्थ अर्थात् अबाधित विषयक हैं । जाग्रतकाल में होती अहमाकार वृत्ति प्रमाणाजन्य होने पर भी जाग्रतकाल में शरीरादि का चक्षुरादिप्रमाणजन्य ज्ञान होता होने से अवस्थाअज्ञान का नाशक बन सकता हैं । स्वप्नाध्यास अवस्थाअज्ञान । इस अवस्थाअज्ञान को सामान्याज्ञान कहा जाता हैं। नानाविषयावच्छिन्नचैतन्यविषयक अज्ञान को ही सामान्याज्ञान कहा जाता हैं । यह सामान्याज्ञान ही अवस्थाअज्ञान हैं। स्वप्नदशा में व्यावहारिक शरीरादि अनेक विषयो से अवच्छिन्न ऐसे चैतन्य विषय का अज्ञान होता हैं। यह अवस्थाअज्ञान या सामान्याज्ञान प्रमाणजन्य वृत्ति के बिना भी केवल यथार्थज्ञान के द्वारा निवृत्त होता हैं। और इस कारण से अहमाकार अविद्यावृत्ति प्रमाणजन्य न होने पर भी यथार्थज्ञान होने से अर्थात् अबाधित विषयकज्ञान होने से सामान्यज्ञान की निवर्तक बन सकती हैं। परंतु विशेषाज्ञान प्रमाणजन्य वृत्ति के बिना निवृत्त नहीं होता हैं। "घटको मैं जानता नहीं हुँ' ऐसे अनुभव में आते अज्ञान को ही विशेषाज्ञान कहा जाता हैं। कुछ खास विशेष विषय द्वारा निरुपति अज्ञान को ही विशेषाज्ञान कहा जाता हैं। केवल एक-एक विषय का अज्ञान ही विशेषाज्ञान हैं। यह विशेषाज्ञान प्रमाणजन्य वृत्ति से ही निवृत्त होता हैं। यहाँ आपत्ति यह दी जाती हैं कि, प्रमाणाजन्य वृत्ति भी यदि अज्ञान की निवर्तक हो सकती हो तो साक्षिज्ञान भी अर्थात् अज्ञान का साक्षिरुप ज्ञान भी अज्ञान का निवर्तक होगा, और तब तो किसी भी स्थान पे अज्ञान सिद्ध ही नहीं होगा।(३२३) इसके उत्तर में कहना चाहिए कि, साक्षी ही अज्ञान का साधक हैं। यदि साक्षी अज्ञान का साधक न हो तो साक्षी की ही सिद्धि नहीं होगी । अज्ञान की सिद्धि के लिए ही अद्वैतवेदान्ती साक्षी का स्वीकार करते हैं । अज्ञान के साधकत्वरुप में ही साक्षिरुप धर्मी सिद्ध हुआ हैं। अज्ञान प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए ही अज्ञानसाधक (३२२) तच्चानिष्टम् जाग्रत्त्वापत्तेरिति चेत् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ.४०८ (३२३) स्वप्नावस्थाऽज्ञानस्यैवान्तःकरणलयसहितस्य सुषुप्तिरूपत्वान्न तत्र तद्बाधः । जागरणे तु मिथ्यैव स्वप्नोऽभादित्यनुभवादहमिति ज्ञानस्य प्रमाणाजन्यत्वेऽपि यथार्थत्वाच्छरीरादिज्ञानस्य च प्रमाणाजन्यत्वाद् अवस्थाऽज्ञानविरोधित्वमनुभवसिद्धम् । विशेषाज्ञानं तु न प्रमाणजन्यवृत्तिमन्तरेण निवर्तते । सिद्धान्तबिन्दु, पृ.४१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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