________________
४२६
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
स्वप्नावस्था के बाध बिना नहीं हो सकती होने से जाग्रददशा में होता "मैं मनुष्य हुँ' इत्यादि व्यावहारिक वस्तुओं का ज्ञान प्रमाणाजन्य होने पर भी अर्थात् अप्रमा होने पर भी स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्थाअज्ञान का बाधक बनता हैं । ऐसी कल्पना अवश्य करनी चाहिए । अर्थात् अप्रमाज्ञान द्वारा अज्ञान की निवृत्ति की कल्पना करनी चाहिए। वैसा न करे तो स्वप्नावस्था के बाद जाग्रदवस्था की उत्पत्ति हो ही नहीं सकेगी। अन्यथानुपपत्ति सर्व की अपेक्षा से बलवती हैं। प्रमाणाजन्य ज्ञान द्वारा अवस्थाअज्ञान की निवृत्ति का स्वीकार न करे तो जाग्रदवस्था की उत्पत्ति संगत ही नहीं होगी । (३२१)
जाग्रददशा में "मैं मनुष्य हुँ' इत्यादि ज्ञान प्रमाणाजन्य कहा गया हैं। अद्वैतवेदांत में विवरणाचार्य इत्यादि के मत में मन प्रमाण नहीं हैं। भामतीकार मन को इन्द्रिय के रुप में स्वीकार करते हैं परंतु विवरणाचार्य इत्यादि मन को इन्द्रिय के रुप में स्वीकार नहीं करते हैं। मन प्रत्यक्ष का कारण नहीं हैं इसलिए विवरणाचार्य इत्यादि मानस प्रत्यक्ष का स्वीकार नहीं करते हैं। मानस प्रत्यक्ष जिसको माना जाता हैं वे सभी साक्षिप्रत्यक्ष हैं। यह साक्षिप्रत्यक्ष प्रमाणजन्य नहीं हैं । इसलिए वह प्रमा भी नहीं हैं । इस कारण से साक्षिप्रत्यक्ष में अज्ञाननिवर्तकता नहीं हैं। साक्षिप्रत्यक्ष अज्ञान का निवर्तक न होने के कारण प्रमा नहीं हैं फिर भी वह किसी स्थान पे यथार्थविषयक होता हैं। उसका उदाहरण हैं, सुखादिविषयक साक्षिप्रत्यक्ष । सुखादिविषयक साक्षिप्रत्यक्ष सुखादिविषयक अज्ञान का निवर्तक नहीं हो सकता । इसलिए सुखादिविषयक साक्षिप्रत्यक्ष प्रमा नहीं हैं, परंतु प्रमा न होने पर भी वह यथार्थविषयक तो हैं । साक्षिभास्य सुखादिविषयक अज्ञान अप्रसिद्ध हैं । शुक्तिरजतादिप्रत्यक्ष भी साक्षिप्रत्यक्ष हैं। वह भी अज्ञान का अनिवर्तक हैं । इसलिए उभय प्रत्यक्ष अप्रमा हैं। ये दोनों प्रत्यक्ष अप्रमा होने पर भी सुखादिविषयक साक्षिप्रत्यक्ष यथार्थविषयक हैं, जब कि, शुक्तिरजतादिविषयक साक्षिप्रत्यक्ष अयथार्थविषयक हैं । सुखादिविषयक साक्षिप्रत्यक्ष यथार्थविषयक होने के कारण किसी किसी स्थान पे उसको प्रमा भी कहा गया हैं।
वस्तुतः सुखादिप्रत्यक्ष प्रमा नहीं हो सकता, क्योंकि वह अज्ञान का अनिवर्तक हैं और प्रमाणाजन्य हैं । विषय बाधित होता न होने के कारण ही सुखादि प्रत्यक्ष को यथार्थविषयक कहा जाता हैं । शुक्तिरजतादिप्रत्यक्ष नियत बाधितविषयक होने से उसको सर्वत्र अप्रमा कहा गया हैं। विवरणाचार्य इत्यादि का अभिप्राय यही हैं। "मैं मनुष्य हुँ' इत्यादि ज्ञान प्रमाणाजन्य होने से प्रमा नहीं हैं अर्थात् अप्रमा हैं। इसलिए वह अज्ञान का निवर्तक अर्थात् बाधक नहीं बन सकता हैं । अप्रमा ज्ञान को भी अज्ञान के बाधक के रुप में स्वीकार किया जाये तो सौषुप्त ज्ञान भी स्वप्नबाधक हो जायेगा। सुषुप्ति दशा में अविद्यावृत्तिरुप अप्रमा ज्ञान होता हैं और उस अविद्यावृत्तिरुप अप्रमाज्ञान द्वारा स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्थाअज्ञान का बाधित होगा। जैसे जाग्रद्दशा में "मैं" ऐसा अप्रमाज्ञान स्वप्नाध्यास के उपादान अवस्थाअज्ञान का बाधक होता हैं, वैसे सुषुप्तिकाल में भी अप्रमाज्ञान द्वारा स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्थाअज्ञान का बाध हो जायेगा। सुषुप्ति में भी "मैं" ऐसे आकार की अविद्यावृत्ति होती हैं ऐसा सोचकर यह आपत्ति दी गई हैं। जैसे जाग्रतकाल में "मैं' ऐसे आकार की वृत्ति उत्पन्न होकर स्वप्नाध्यास के उपादान अवस्थाअज्ञान को दूर करती हैं, वैसे सुषुप्ति काल में भी "मैं" ऐसे आकार की वृत्ति उत्पन्न होती होने से स्वप्नाध्यास के उपादान अवस्थाअज्ञान की निवृत्ति होगी। परन्तु ऐसा होता नहीं हैं। क्यों? क्योंकि "मैं' ऐसे आकार की वृत्ति प्रमाणाजन्य अविद्यावृत्ति हैं। इसलिए सुषुप्ति में "मैं" ऐसे आकार की वृत्ति से स्वप्नाध्यास के __ (३२१) ननु 'अहं मनुष्यः' इत्यादिव्यावहारिकसंघातज्ञानस्य प्रमाणाजन्यत्वात् कथमज्ञाननिवर्तकता ? अवस्थान्तरान्यथानुपपत्त्या तत्कल्पने सुषुप्तावपि स्वप्नबाधकज्ञानमास्थीयेत । सिद्धान्तबिन्दु, पृ.४०७-४०८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org