________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
हैं । तत्तत्जीवचैतन्य भी तत्तत्जीव के आगे अज्ञान से आवृत हो तो जगद्आन्ध्य की आपत्ति आयेगी । ( ३१९)
इस शंका के समाधान में जीवचैतन्याधिष्ठानवादी कहते हैं कि, पूर्वपक्षी की बात सत्य हैं, तो भी स्वप्नाध्यासदशा में व्यावहारिक वस्तुओं का प्रकाश नहीं होता हैं इसलिए व्यावहारिक वस्तुओ के भान का विरोधी तथा स्वप्नाध्यास को अनुकूल ऐसा अवस्था अज्ञान स्वीकार किया गया हैं।
४२५
इसलिए, स्वप्नदशा में “मैं मनुष्य हूँ" ऐसी जो प्रतीति होती हैं उस प्रतीति का विषय व्यावहारिक नहीं हैं, परन्तु प्रातीतिक हैं । व्यावहारिक वस्तु से भिन्न प्रातीतिक वस्तु ही स्वप्नदशा में होती "मैं मनुष्य हुँ" इत्यादि प्रतीति में भासित होती हैं। इसका फलितार्थ यह हैं- स्वप्नदशा में कोई कोई व्यावहारिक वस्तु भासित होती हैं ऐसा मन में लगता होने पर भी स्वप्न ज्ञान का विषय वास्तव में व्यावहारिक नहीं होता हैं । स्वप्नप्रपंचगत वस्तु व्यावहारिक वस्तुओ से अत्यन्त भिन्न हैं, प्रातीतिक हैं, और अवस्था अज्ञान उसका उपादानकारण हैं। स्वप्नदशा में स्वप्नद्रष्टा ऐसा स्वप्न देखता हैं कि ‘“में शय्यामें सो रहा हूँ" अर्थात् वस्तुतः शय्या में सोते सोते स्वप्नद्रष्टा ऐसा स्वप्न देखता हैं, फिर भी व्यावहारिक यथार्थ शय्या स्वप्नकाल में स्वप्नद्रष्टा के दर्शन का विषय नहीं हैं । व्यावहारिक यथार्थ शय्या का ज्ञान होने के लिए आवश्यक कारणसामग्री स्वप्नकाल में नहीं होती हैं। स्वप्नकाल में समस्त इन्द्रियाँ व्यापाररहित होती हैं, अर्थात् इन्द्रियों का लय हो गया होता हैं। इसलिए प्रातिभासिक ऐसी दूसरी शय्या ही स्वप्नद्रष्टा के ज्ञान का विषय बनती हैं। जाग्रत्काल में "मैं मनुष्य हूँ" ऐसी जो प्रतीति होती हैं उस प्रतीति की कारणसामग्री स्वप्नकाल में न होने से स्वप्न काल में "मैं मनुष्य हूँ" ऐसी जो प्रतीति होती हैं उसका विषय प्रातिभासिक वस्तु
ऐसा स्वीकार करना चाहिए। स्वप्नदशा में जैसे व्यावहारिक शय्यादि के प्रत्यक्ष की कारण सामग्री नहीं होती हैं, वैसे व्यावहारिक मनुष्यशरीरादि के प्रत्यक्ष की कारणसामग्री भी नहीं होती हैं । इन्द्रिय, सन्निकर्ष इत्यादि ही व्यावहारिक वस्तु के प्रत्यक्ष की कारणसामग्री हैं । ( ३२०)
जीवचैतन्य को स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान माना जाये तो जाग्रद्दशा में होता "मैं मनुष्य हुँ" इत्यादि व्यावहारिक वस्तुओं का ज्ञान ही स्वप्नाध्यास का निवर्तक बनता हैं, ऐसा कहना चाहिए। परंतु उसमें नीचे बताये अनुसार आपत्ति आती हैं - स्वप्नाध्यास का उपादान अवस्था अज्ञान हैं। प्रमाणजन्य ज्ञान ही अज्ञान का निवर्तक बनता हैं। प्रमा ही अज्ञान की विरोधी हैं। प्रमाणाजन्य ज्ञान अज्ञान का नाशक नहीं होता हैं। प्रमाणाजन्य ज्ञान प्रमा नहीं हैं । अप्रमा अज्ञान की नाशक नहीं बन सकती हैं। जागद्दशा में "मैं मनुष्य हुँ" इत्यादि व्यावहारिक वस्तुओं का ज्ञान प्रमाणजन्य नहीं हैं। इसलिए वह ज्ञान प्रमा भी नहीं हैं। अप्रमारुप ज्ञान अज्ञान का निवर्तक नहीं बनता हैं। इस प्रकार जाग्रद्दशा में स्वप्नाध्यास के उपादान अवस्था अज्ञान की निवृत्ति नहीं हो सकती होने से जाग्रददशा में स्वप्नाध्यास चालू रहे ऐसी आपत्ति आयेगी ।
इस आपत्ति के समाधान में नीचे बताये अनुसार कहा जाता हैं - स्वप्नावस्था से जाग्रदवस्था भिन्न हैं इसलिए स्वप्नावस्था के बाद जब जाग्रदवस्था की उत्पत्ति हो तब यह अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि पूर्वावस्था बाध होने के बाद ही उत्तरावस्था की उत्पत्ति होती हैं। स्वप्नावस्था अबाधितरुप में हो तो जाग्रदवस्था की उत्पत्ति नहीं हो सकती । और स्वप्नावस्था के बाद जाग्रदवस्था की उत्पत्ति सर्वानुभवसिद्ध हैं। जाग्रदवस्था की उत्पत्ति
( ३१९ ) ननु जीवचैतन्यस्यानावृतत्वेन सर्वदा भासमानत्वात् कथमधिष्ठानत्वम् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४०५ (३२० ) सत्यम् । तत्रापि स्वप्नाध्यासानुकूलव्यावहारिकसंघातज्ञानविरोध्यवस्थाऽज्ञानाभ्युपगमात् । स्वप्नदशायां चाहं मनुष्य इत्यादिप्रातीतिकसंघातान्तरज्ञानाभ्युपगमात्। 'शय्यायां स्वपिमि' इति शय्यान्तरज्ञानवत् । ज्ञानसामग्य्रभावश्च तुल्य एव । सिद्धान्तबिन्दु, पृ. ४०५-४०६
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jalnelibrary.org