SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 537
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन स्वप्नगज इत्यादि आकार में मन परिणत होता नहीं हैं, परंतु अविद्या ही शुक्ति-रजत इत्यादि की तरह स्वप्नगज, स्वप्नतुरग इत्यादि अर्थाकार में परिणत होता हैं और अविद्यावृत्ति द्वारा ही स्वप्नपदार्थ ज्ञात होता हैं। इन दोनों पक्ष में से दूसरा पक्ष ही संगत हैं। सर्वत्र अविद्या ही अर्थाध्यास और ज्ञानाध्यास के उपादान रुप में स्वीकृत होने से मन को स्वप्नाध्यास का उपादान गिनने की जरुरत नहीं हैं। समस्त अध्यास में मनोगत वासना निमित्तकारण होने से, कोई कोई स्थान पे स्वप्नप्रपंच को मन का परिणाम कहा गया हैं । वस्तुतः उपादान अविद्या ही संगत होती हैं। मनोगत वासना से जन्य होने से ही स्वप्नपदार्थ को मन का परिणाम कहा गया है, वास्तव में तो वह मन का परिणाम नहीं हैं । (३१७) इस स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान क्या हैं ?- ऐसे प्रश्न के उत्तर में आचार्यो का मतभेद दिखाई देता हैं। कोई आचार्य कहते हैं कि, मन से अवच्छिन्न जीवचैतन्य ही स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान हैं। किसी आचार्य के मतानुसार मूलाज्ञान से अवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य ही स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान हैं । दोनों पक्ष संगत हैं। प्रथम पक्ष में माननेवाले कहते हैं कि, मूलाज्ञान से अवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान नहीं हो सकता क्योंकि जानबोध द्वारा स्वप्नभ्रम की निवृत्ति अवश्य स्वीकार्य हैं। परंतु यदि ब्रह्मचैतन्य स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान हो तो संसारदशा में ब्रह्मज्ञान संभवित न होने से स्वप्नभ्रम की निवृत्ति जाग्रत्काल में भी नहीं हो सकेगी । यदि स्वप्नभ्रम की निवृत्ति के लिए जाग्रत्काल में स्वप्नभ्रम के अधिष्ठान ब्रह्म का ज्ञान स्वीकार किया जाये तो स्वप्नभ्रम के साथ समस्त भ्रम की निवृत्ति हो जाये और परिणामस्वरुप तुरंत ही मोक्ष हो जाने की आपत्ति आयेगी। इस प्रकार ब्रह्म को स्वप्नभ्रम का अधिष्ठान स्वीकार करने से जाग्रदबोध द्वारा स्वप्नभ्रम की निवत्ति नहीं हो सकेगी। स्वप्नाध्यास में जीव कर्ता हैं, ऐसा श्रुति कहती हैं। "स हि कर्ता" (बृहदारण्यक उपनिषद् ४-३-९) ऐसा श्रुति में कहा हैं । इसलिए स्वप्नाध्यास में अधिष्ठान जीवचैतन्य हैं । मूलाज्ञान से अवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान हो तो स्वप्नप्रपंच भी आकाशादि व्यावहारिक प्रपंच की तरह सर्घजनसाधारण हो जाये, और तत्तत्पुरुषवेद्यत्व असाधारणत्व स्वप्नप्रपंच में नहीं हो सकेगा। स्वप्नप्रपंच का ज्ञान स्वप्नद्रष्टा पुरुष को ही होता हैं। जब कि, आकाशादि व्यावहारिक प्रपंच का ज्ञान सर्व जनो को होता हैं। आकाशादि व्यावहारिक प्रपंचाध्यास का अधिष्ठान मूलाज्ञान से अवच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य हैं । इसलिए व्यावहारिक वस्तु में सर्वजनसाधारण्य हैं, जब कि, स्वप्नप्रपंच में वह न होने से असाधारण्य हैं । (३१८) यहाँ किसीको शंका होगी कि तत्तत्जीवचैतन्य तत्तत्जीव के आगे अनावृत्त होने से सर्वदा भासमान होता हैं। इसलिए सर्वदा भासमान जीवचैतन्य स्वप्नाध्यास का अधिष्ठान किस तरह से बन सकेगा? भासमान शुक्ति रजताध्यास का अधिष्ठान नहीं बन सकती। अज्ञान से आवृत्त शुक्त्यादि ही रजतादि के अध्यास का अधिष्ठान बनती (३१७) जाग्रद्भोगजनककर्मक्षये स्वप्नभोगजनककर्मोदये च सति निद्राख्यया तामस्या वृत्त्या स्थूलदेहाभिमाने दूरीकृते सर्वेन्द्रियेषु देवतानुग्रहाभावान्निर्व्यापारतया लीनेषु विश्वोऽपि लीन इत्युच्यते । तदा स्वप्नावस्था । तत्र चान्तःकरणगतवासनानिमित्तः इन्द्रियवृत्त्यभावकालीनोऽर्थोपलम्भः स्वप्नः । तत्र मन एव गजतुरगाद्यकारेण विवर्तते अविद्यावृत्त्या च ज्ञायते इति केचित्। अविद्यैव शुक्तिरजतादिवत् स्वप्नार्थीकारेण परिणमते ज्ञायते चाविद्यावृत्त्येत्यन्ये । कः पक्ष: श्रेयान् ? उत्तरः । अविद्याया एव संर्वत्रार्थाध्यासज्ञानाध्यासोपादानत्वेन क्लृप्तत्वात् मनोगतवासनानिमित्तत्वेन च क्वचिन्मनःपरिणामत्वव्यपदेशात् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ.४००-४०२ (३१८) किमधिष्ठानं स्वप्नाध्यासस्य? मनोऽवच्छिन्नं जीवचैतन्यमित्येके। मूलाज्ञानावच्छिन्नं ब्रह्मचैतन्यमित्यपरे । किं श्रेयः । मतभेदेनोभयमपि । तथाहि जाग्रद्बोधेन स्वप्नभ्रमनिवृत्त्यभ्युपगमादधिष्ठानज्ञानादेव च भ्रमनिवृत्तेर्ब्रह्मचैतन्यस्य चाधिष्ठानत्वे संसारदशायां तज्ज्ञानाभावात् ज्ञाने वा सर्वद्वैतनिवृत्तेर्न जाग्रबोधात् स्वप्ननिवृत्तिः स्यात् । ‘स हि कर्ता' इति च जीवकर्तृकत्वश्रुतेः आकाशादिप्रपञ्चवत् सर्वसाधारण्यापत्तेश्च न मूलाज्ञानावच्छिन्नं ब्रह्मचैतन्यमधिष्ठानम् । सिद्धान्तबिन्दु, पृ.४०३-४०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy