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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
प्राचीन न्याय :
प्राचीन न्याय के प्रवर्तक श्री गौतम ऋषि माने जाते हैं । उन्हों ने न्यायसूत्र (नैयायिक सूत्र) में प्रमाणादि सोलह पदार्थो का विस्तार से निरूपण किया हैं । श्री वात्स्यायन ऋषिने न्यायसूत्रो के ऊपर विस्तृत न्यायभाष्य की रचना की हैं । उसमें सूत्रो का प्रामाणिक अर्थ किया गया हैं । श्री उद्योतकर ने न्यायभाष्य के उपर न्यायवार्तिक की रचना की थी। उसमें दिङ्नाग के कुर्तकों का युक्तिपुरःसर खंडन किया गया हैं । “न्यायवार्तिक" के गूढार्थ को स्पष्ट करने के लिए उसके उपर
श्री वाचस्पति मिश्रने "तात्पर्य टीका" की रचना की हैं । ये सब ग्रंथों में प्राचीन न्याय के अनेक नियम-सिद्धांत पुरस्कृत हुए है । ___ श्री वाचस्पति मिश्रने अनेक दर्शनो के उपर अपनी विद्वत्तापूर्ण लेखिनी चलाई हैं । इसलिए उनको "सर्वतंत्र स्वतंत्र" कहा गया था । उन्हों ने (१) न्यायशास्त्र के उपर न्यायतात्पर्य टीका (न्याय-सूची निबंध) (२) वेदांत दर्शन के बह्मसूत्र-शारीरिक भाष्य के ऊपर “भामती" टीका, तत्त्वसमीक्षा (ब्रह्मतत्त्व समीक्षा) (३) मीमांसादर्शन के उपर न्यायकर्णिका और तत्त्वबिन्दु (४) सांख्यदर्शन के उपर सांख्यतत्त्वकौमुदी और (५) योगदर्शन में (योगभाष्य के उपर) तत्त्ववैशारदी : इतने ग्रंथ रचे हैं। __ श्री उदयनाचार्यने न्यायशास्त्र की श्री वाचस्पति मिश्रकृत "न्यायतात्पर्यटीका" के उपर "तात्पर्य परिशुद्धि" नाम की टीका रची है । उपरांत उन्हों ने प्रशस्तपाद भाष्य के उपर किरणावली टीका, न्यायकुसुमाञ्जली, आत्मतत्त्वविवेक और न्याय परिशिष्ट, इन ग्रंथो की रचना की थी । ___प्राचीन न्याय की परंपरा में श्री जयंत भट्ट हुए । उन्हों ने न्यायमंजरी ग्रंथ की रचना करके चार्वाक, बौद्ध, मीमांसा और वेदांत दर्शन की मान्यताओं का, प्रबल और पांडित्यपूर्ण युक्तियों द्वारा खंडन किया है । श्री भासर्वज्ञ ने "न्यायसार" ग्रंथ की रचना की हैं । उनकी इस कृति में नैयायिक सिद्धांतो से अपूर्व कुछ सिद्धांतो का समुञ्चय हुआ हैं । उसमें स्वार्थ-परार्थानुमान का वर्णन, उपमान प्रमाण का खंडन, बौद्धो की तरह पक्षाभास और दृष्टांताभास का वर्णन और आत्मा की निरतिशय आनंदोपलब्धिरूप मुक्ति की कल्पना - उसके ये कुछ सिद्धांत अपूर्व हैं। नव्यन्याय :
नव्यन्याय की उत्पत्ति गंगेश उपाध्याय द्वारा हुई थी । उन्हों ने अवच्छेदक, अवच्छेद्य, निरुपक, निरुप्य, अनुयोगी, प्रतियोगी आदि नूतन शब्दो की उद्भावना करके न्याय की शैली को एक नया आकार दिया था । उन्हों ने अपनी नूतन शैली का आविष्कार "तत्वचिंतामणी" नाम के ग्रंथ द्वारा किया हैं ।
श्री जयदेव ने (पक्षधर मिश्रने) तत्वचिंतामणी ग्रंथ के उपर "आलोक" नामक टीका रची हैं । श्री गंगेश उपाध्याय के पुत्र श्री वर्धमान उपाध्याय ने श्री उदयनाचार्य के ग्रंथ और तत्त्वचिंतामणी ग्रंथ के उपर "प्रकाश" नाम की टीका की रचना की थी । नव्यन्याय की परंपरा में हुए श्री रघुनाथ शिरोमणि ने तत्व चिंतामणी ग्रंथ के उपर विवरणात्मक "दीधिति" टीका की रचना की थी । वह तत्त्वचिंतामणी ग्रंथ की श्रेष्ठ टीका मानी जाती हैं ।
श्री मथुरानाथ तर्कवागीशने “आलोक", "चिंतामणी” तथा “दीधिति" इन महत्त्वपूर्ण ग्रंथो के उपर प्रकाश फैलाती "रहस्य" नामक टीका रची थी । उन्हों ने (१) तत्त्वचिंता रहस्य, (२) आलोक रहस्य, (३) दीधितिरहस्य, (४) सिद्धांत रहस्य, (५) किरणावली प्रकाश रहस्य, (६) न्यायलीलावती रहस्य, (७) न्यायलीलावती प्रकाश-दीधिति रहस्यः इतने ग्रंथ रचे थे।
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