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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका उस परंपरा में हुए श्री जगदीश तर्कालंकारने “दीधिति" के उपर एक विस्तृत टीका रची थी । जो सर्वसाधारण रुप से "जागदीशी" नाम से प्रसिद्ध हैं । उसके अन्तर्गत व्याप्तिपंचक, सिंहव्याघ्रलक्षण, व्यधिकरण प्रकरण, पक्षता, केवलान्वयी आदि ग्रंथ आते हैं । तदुपरांत, उन्हों ने शब्दशक्ति प्रकाशिका, तामृत, पदार्थतत्त्वनिर्णय, न्यायादर्श आदि अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी रचे थे । __ उस परंपरा में श्री गदाधर भट्टाचार्य हो गये । उन्हों ने नव्य न्यायगर्भित ६४ ग्रंथो की रचना की थी । “दीधिति" में वर्णन किये गये व्याप्ति विषयक भिन्न-भिन्न विषयो के उपर स्वतंत्र विशालकाय ग्रंथो की रचना की हैं । उनके ग्रंथ विस्तृत, गूढ और प्रमेय बहुल एवं अनेक रहस्योद्घाटक है । उन्हों ने व्याप्ति पंचक, सिद्धांत लक्षण, अवयव प्रकरण, पक्षता, व्युत्पत्तिवाद, शक्तिवाद, व्यधिकरण प्रकरण, प्रामाण्यवाद, सामान्य नियुक्ति, मुक्तिवाद, ब्रह्मनिर्णय, सत्प्रतिपक्ष, सव्यभिचार, केवलान्वयी आदि अनेक ग्रंथ रचे है। श्री उदयनाचार्य के 'आत्मतत्त्व विवेक' के उपर भी टीका रची थी । इस प्रकार से नैयायिक दर्शन का आंशिक परिचय पूर्ण होता हैं । अब सांख्यदर्शन का आंशिक परिचय प्राप्त करेंगे। सांख्यदर्शन : सांख्यदर्शन के प्रवर्तक श्री कपिल ऋषि हैं । सांख्य शब्द का अर्थ 'ज्ञान' हैं । प्रकृति-पुरुष और उसके भेद का जो यथार्थ ज्ञान, उसका नाम 'सांख्य' और ऐसे ज्ञान का उपाय बतानेवाला दर्शन अर्थात् सांख्यदर्शन । श्री विज्ञानभिक्षु 'सांख्य' शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि, प्रकृति-पुरुष के भेद के निर्देश के साथ आत्मा का स्वरूप दर्शन ।८१) श्री शंकराचार्य भी अपने ग्रंथ में 'सांख्य' शब्द का अर्थ 'ज्ञान' करते हैं ।८२) गीता में भी सम्यग्ज्ञान के अर्थ में सांख्य शब्द बारबार प्रयोजित हुआ दिखाई देता हैं ।८३) व्यासस्मृति में 'शुद्धात्मतत्त्वज्ञान' को “सांख्य" शब्द से बताया गया हैं ।८४) सांख्य का वर्णन उपनिषद्, स्मृतियाँ, पुराण, महाभारत, भागवत और बुद्धचरित में देखने को मिलता हैं। देवता : (प्रस्तुत ग्रंथ की टीका के आधार पर) कुछ सांख्य ईश्वर देवता को मानते हैं, तो कुछ सांख्य ईश्वर को नहीं मानते हैं। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, श्री ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका में ईश्वर के अस्तित्व या निषेध के विषय में कोई खुलासा नहीं हैं। परन्तु सांख्यकारिका के टीकाकार श्री वाचस्पति मिश्र सांख्यतत्त्वकौमुदी (का. ५७) में ईश्वर जगत् का कर्ता हैं, उसमें कोई प्रमाण नहीं है, ऐसा बताते हैं । सांख्य सिद्धांत में ईश्वर जगत का स्रष्टा नहीं हैं । प्रकृति में से जगत की उत्पत्ति होती है । सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है और निमितकारण जीव के धर्माधर्म । जीवो के धर्माधर्म अनुसार उनके भोग और अपवर्ग के लिए प्रकृति विचित्र जगत का सर्जन करती है ।(८५) सृष्टि के प्रारंभ में कर्माधीन पुरुषो के संस्पर्श के कारण प्रकृति की साम्यावस्था का भंग होता है और सृष्टि प्रक्रिया का प्रारंभ होता हैं ।।८६) ईश्वर जगत के कर्ता, धर्ता या हर्ता (ध्वंसकर्ता) नहीं हैं। 81. सङ्ख्या सम्यग्विवेकेनात्मकथनमित्यर्थः । अत: साङ्ख्यशब्दस्य योगरूढतया । (सां.प्र.भा. भूमिका) । 82. तत्कारणं साङ्ख्ययोगाधिगम्यमिति वैदिकमेव ज्ञानं ध्यानं च साङ्ख्ययोगशब्दाभ्यामलिप्यते ।। (श्री शंकराचार्य) । 83. सम्यक् ख्यायते प्रकाश्यते वस्तुतत्त्वमनयेति संख्या सम्यग्ज्ञानं, तस्यां प्रकाशमानमात्वतत्त्वं साङ्ख्यमिति (श्रीधर, गीता २-३९)। 84. शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं साङ्ख्यमित्यभिधीयते (व्यासस्मृति) 85. पुरुषार्थ एव हेतुर्न केनचित् कार्यते करणम् (सांख्यकारिका-३१) । 86. सां.का. ५६ (इस कारिका का विवेचन सांख्यदर्शन के विशेषार्थ में देखना) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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