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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका वह वस्तु अमुक पद वाच्य है ऐसा जो ज्ञान पेदा होता है, वह उपमिति हैं । जैसे कि गवय पशु को जानता नहीं है वह अरण्यवासी के पास से जानता हैं कि, “गवय गोसदृश होता हैं ।" ऐसे वाक्य को अतिदेश वाक्य कहा जाता है । अब वह व्यक्ति जंगल में जाता हैं । वहाँ वह गोसदृश पशु को देखता हैं अर्थात् उस पशु में रहा हुआ गोसादृश्य उसको प्रत्यक्ष होता हैं । तब उसको पहले सुने हुए अतिदेश वाक्य का स्मरण होता हैं । उसके फल स्वरूप “गवय गवयपदवाच्य है" ऐसा संज्ञासंज्ञी-संबंध का ज्ञान उसको होता है । यह संज्ञासंज्ञी संबंध ज्ञान उपमिति है और उसका जो साधकतम कारण है वह उपमान प्रमाण हैं ।(७७) ___ कुछ दार्शनिक उपमान प्रमाण का अनुमान में अंतर्भाव करते है । उनकी दलील हैं कि, जैसे अनुमान में प्रत्यक्ष वस्तु (धूम) से अप्रत्यक्ष ऐसे वहिन का ज्ञान होता हैं । वैसे उपमान में भी प्रत्यक्ष वस्तु गो से अप्रत्यक्ष वस्तु (गवय) का ज्ञान होता हैं । इसलिए उपमान को अनुमान ही मानना चाहिए । इसका विरोध करते हुए नैयायिक कहते हैं कि, प्रत्यक्ष 'गो' द्वारा अप्रत्यक्ष 'गवय' का ज्ञान कराने का काम उपमान प्रमाण का नहीं हैं । परन्तु उसका काम तो जब अज्ञात गवय सामने उपस्थित हो (प्रत्यक्ष हो) तब उसके अंदर प्रत्यक्ष हुए ‘गवयत्व सामान्य' का 'गवय पद वाच्य' रुप से ज्ञान कराने का हैं। तदुपरांत अनुमान में पक्षधर्मताज्ञान और व्याप्तिज्ञान की आवश्यकता हैं । जब कि उपमान को उसकी आवश्यकता नहीं हैं । उपमान प्रमाण अतिदेशवाक्यार्थ स्मरण सहकृत सादृश्यदर्शन रूप हैं । जब कि, अनुमान प्रमाण व्याप्तिज्ञान संबंधस्मरण सहकृत लिंगपरामर्शरुप हैं । इसलिए दोनों के बीच में भेद हैं । उपमिति के तीन प्रकार भी अन्य ग्रंथो में बताये है । साधोपमिति, वैधोपमिति और धर्ममात्रोपमिति ।। (४) शब्द प्रमाण : आप्त पुरुष के वचन (उपदेश) को शब्द प्रमाण कहा जाता हैं ।।७८) आप्तवचन द्वारा जो बोध उ ज्ञान हो उसे शाब्द बोध या शाब्दी प्रमा कहा जाता हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में शब्द प्रमाण की विशेष कोई विचारणा नहीं की हैं। अन्य ग्रंथो में शब्द प्रमाण के साथ संबंधित शक्ति निरूपण, शक्तिग्रह के आठ उपाय, लक्षणा निरूपण, आसत्ति-आकांक्षायोग्यता-तात्पर्य इन चार का निरूपण आदि अनेक विषयो की विचारणा की गई हैं । न्यायसिद्धांत मुक्तावली - दिनकरी आदि ग्रंथो में उसकी विस्तृत विचारणा की हैं । "इस पद से इस अर्थ को जानना" ऐसे ईश्वर संकेत को शक्ति कहा जाता है और शक्तियुक्त को पद कहा जाता हैं। पदों के समूह को "वाक्य" कहा जाता हैं । आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि, वाक्यार्थ के ज्ञान के कारण हैं। वाक्य दो प्रकार के होते हैं । वैदिक और लौकिक । शक्य के संबंध को लक्षणा कहा जाता हैं ।७९) शक्तिग्रह व्याकरण, उपमान, कोश, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्यशेष, विवृत्ति, सिद्धपद के सान्निध्य : ये आठ से होता हैं।८०) नैयायिक दर्शन के ग्रंथ और ग्रंथकार : न्यायदर्शन की दो प्रकार की धाराये देखने को मिलती हैं । प्रथम धारा "प्राचीन न्याय" और द्वितीय धारा "नव्य न्याय" के नाम से पहचानी जाती है । प्राचीन न्याय में पदार्थ की मीमांसा ही मुख्य विषय होने से उसे "पदार्थमीमांसात्मक" शैली भी कही जा सकती हैं । नव्यन्याय में प्रमाणो की विचारणा ही मुख्य विषय होने से उसे "प्रमाणमीमांसात्मक" शैली भी कही जा सकती हैं । 77. प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् । (न्यायसूत्र २-२-६) । 78. आप्तोपदेशः शब्दः । (न्या.सू. १-१-७) । 79. तर्कसंग्रह, (शब्दखंड)। 80. न्यायसिद्धांतमुक्तावली (शब्दखंड)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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