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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका न्याय (- वैशेषिक) मतानुसार (१) प्रथम हम को निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता हैं । जिसमें घट और घटत्व का अलग-अलग विशेष्य-विशेषण भाव रहित ज्ञान होता हैं । (२) उसके बाद “यह घट है" इस प्रकार से सविकल्पक प्रत्यक्ष ज्ञान होता हैं । जिसमें घट और घटत्व के बीच का विशेषण - विशेषा भाव का ग्रहण होता हैं । (३) उसके बाद सविकल्पक ज्ञान का मानस प्रत्यक्ष (अनुव्यवसाय) होता हैं । “मैं घट को जानता हुँ" ऐसा अनुव्यवसाय का आकार होता हैं । यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, प्रशस्तपाद भाष्य निर्विकल्प प्रत्यक्ष को 'प्रत्यक्ष प्रमा' के रूप में स्वीकार नहीं करते है । परन्तु प्रत्यक्ष प्रमा की उत्पत्ति के पहले की आवश्यक भूमिका के रूप में ये उसका स्वीकार करते हैं । लौकिक छ: सन्निकर्ष और लौकिक प्रत्यक्ष के विषय में आंशिक विचारणा की । श्री गंगेश उपाध्याय ने तत्त्व चिंतामणि ग्रंथ में तीन अलौकिक सन्निकर्ष और अलौकिक प्रत्यक्ष भी बताये हैं । सामान्यलक्षण सन्निकर्ष, ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष और योगज सन्निकर्ष, ये तीन अलौकिक सन्निकर्ष हैं । उससे भी तीन अलौकिक प्रत्यक्ष उत्पन्न होते हैं ।(७६) ये तीनो प्रकार के प्रत्यक्षो का स्वरूप न्यायसिद्धांतमुक्तावली - दिनकरी - रामरूद्री टीका में विस्तार से दिया हैं । (२) अनुमान प्रमाण : लिंग से लिंगी का ज्ञान हो उसे अनुमान कहा जाता हैं । पर्वत के उपर धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करते हैं । यहाँ धूम वह अग्नि का ज्ञान करानेवाला लिंग हैं और अग्नि लिंगी हैं । धूम को अग्नि का ज्ञापक हेतु, अग्नि का लिङ्ग या अग्नि का ज्ञापक साधन कहा जाता हैं । अग्नि को साध्य या लिंगी कहा जाता हैं । अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक होता है अर्थात् लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन होने के बाद लिंग से लिंगी का (साध्य का) ज्ञान हो उसे अनुमान कहा जाता हैं । वह अनुमान पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ऐसे तीन प्रकार का हैं । यहाँ पूर्ववत् केवलान्वयी, शेषवत् केवल व्यतिरेकी और सामन्यतोदृष्ट अन्वय व्यतिरेकी अनुमान के संदर्भ में हैं । इन तीनो अनुमान का विस्तार से स्वरूप श्लोक १८-१९ की टीका में बताया हैं । उपरांत वहाँ तीनों अनुमानो का निरुपण भिन्न भिन्न अपेक्षा से किया गया हैं। नैयायिक दर्शन ने हेतु के पाँच रुपो का स्वीकार किया हैं । (१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्षसत्त्व, (३) विपक्षासत्त्व, (४) अबाधितविषयत्व और (५) असत्प्रतिपक्षत्व । केवलान्वयी अनुमान में विपक्षासत्त्व के सिवा चार रूपो का और केवल व्यतिरेकी अनुमान में सपक्षसत्त्व के अतिरिक्त चार रूपो का तथा अन्वयव्यतिरेकी अनुमान में पाँचो रुप का आलंबन होता हैं । हेतु के पाँचों रूपो का स्वरूप प्रस्तुत ग्रंथ की टीका में दिया गया हैं । अनुमान प्रमाण के स्वरूप - आकार की स्पष्ट समज के लिए पक्षता, पक्षधर्मता, व्याप्तिज्ञान, व्याप्य - व्यापकभाव, व्याप्ति के प्रकार, व्याप्तिग्रह, लिंग परामर्श, स्वार्थानुमान - परार्थानुमान, पंचावयव, हेतु भेद, हेतु के रूप, हेत्वाभास आदि की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक हैं । हेतु के पाँच रूप, पंचावयव, व्याप्ति के प्रकार, हेत्वाभास आदि की विचारणा प्रस्तुत ग्रंथ में की ही हैं और टिप्पणी में लगभग सभी विषयो की विचारणा की ही गई हैं । बाकी के विषय न्याय सिद्धांतमुक्तावली आदि ग्रंथों से जान ले । अनुमान के विषयो में नैयायिको ने बहोत परिश्रम करके अनेक ग्रंथों की रचना की है । एक-एक विषय को स्पष्ट करने के लिए स्वतंत्र ग्रंथो की रचना की है । विस्तार भय से वे सभी विषय यहाँ लिखना संभव नहीं है । (ग्रंथो के नाम आगे बताये जायेंगे ।) (३) उपमान प्रमाण : जानकार के पास से ज्ञात और अज्ञात ऐसी दो वस्तुओं के सादृश्य को जानकार के वाक्य से जानने के बाद अज्ञात वस्तु में जब वह सादृश्य प्रत्यक्ष होता है, तब उस वाक्य का स्मरण हो और परिणाम स्वरूप 76. अलौकिकस्तु व्यापारनिविधः परिकीर्तितः । सामान्यलक्षणो ज्ञानलक्षणो योगजस्तथा ।। ६३।। (कारिकावली) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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