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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
(१) प्रत्यक्ष प्रमाण : इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्न हुआ, अव्यपदेश्य (शब्द प्रयोग से रहित), अव्यभिचारी (संशयविपर्यय से रहित) और व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता हैं ।(७२)
श्रोत्रेन्द्रियादि पाँच और मन ऐसे इन्द्रियाँ छ: है। इन्द्रियों और उसके रुपादि का संपर्क होना उसे इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष कहते है । न्यायमतानुसार सन्निकर्ष छ: है । (१) संयोग, (२) संयुक्तसमवाय, (३) संयुक्तसमवेतसमवाय, (४) समवाय, (५) समवेतसमवाय, (६) विशेषण-विशेष्यभाव । ये छ: सन्निकर्ष द्वारा कौन से विषय ग्रहण होते है, उसकी विचारणा और प्रत्यक्ष के लक्षण में दिये गये विशेषणो की सार्थकता श्लोक-१७ की टीका में बताई हैं ।
प्रत्यक्ष के दो भेद हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष और सविकल्पक प्रत्यक्ष । पूर्वोक्त प्रत्यक्ष के लक्षण में निर्दिष्ट दो विशेषणो से प्रत्यक्ष के दो भेद लक्षित होते हैं । उसका भी टीका में स्पष्टीकरण किया गया है । (अन्य दृष्टि से) प्रत्यक्ष के दो प्रकार है । (१) अयोगि प्रत्यक्ष और (२) योगिप्रत्यक्ष । अयोगि प्रत्यक्ष के निर्विकल्पक और सविकल्पक ऐसे दो भेद है । तथा योगि प्रत्यक्ष के भी युक्तयोगिओं का प्रत्यक्ष और वियुक्तयोगिओं का प्रत्यक्ष ऐसे दो प्रकार है । इन प्रभेदो का स्वरूप टीका में विस्तार से समजाया है।
प्रत्यक्ष प्रधान प्रमाण है क्योंकि बाकी के तीनो प्रमाण प्रत्यक्षमूलक हैं । प्रत्यक्ष को कोई अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं हैं । जब कि अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाणो को प्रत्यक्ष की अपेक्षा है । जैसे कि, लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन हुए बिना लिंगी का अनुमान नहीं हो सकता हैं ।(७३)
इन्द्रियाँ अपने विषय के साथ संयुक्त हुए बिना विषय का ग्रहण नहीं कर सकती है, इस प्रकार से नैयायिको का इन्द्रिय-प्राप्यकारित्व का सिद्धांत हैं । न्यायमतानुसार वस्तु का प्रत्यक्ष साक्षात् होता है । वस्तु ज्ञान में उठे हुए उसके आकार से अनुमित नहीं होती है । नैयायिको की मान्यता है कि, हमारा ज्ञान निराकार है और ज्ञान में जो आकार भासित होता है वह ज्ञान का नहीं है, परन्तु वस्तु का हैं । तदुपरांत वस्तुओं की आकृतियाँ हमारे आत्मा तक पहुँचती नहीं है । परन्तु इन्द्रियाँ वस्तु देश में पहुँचकर उस वस्तु को वही प्रकाशित करती
प्रत्यक्ष ज्ञान किस तरह से उत्पन्न होता हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए न्यायभाष्य में कहा हैं कि, जाग्रत् अवस्था में जिसका मन एक विषय में लगा हुआ है, ऐसी व्यक्ति को जब अमुक अन्य विषय का प्रत्यक्ष करने की इच्छा होती हैं, तब इच्छा के अनुरुप प्रयत्न उसमें उत्पन्न होता हैं । उसके बाद ऐसे प्रयत्नवाला आत्मा मन को उस विषय को जानने में समर्थ इन्द्रिय के साथ जुडने के लिए गति करने की प्रेरणा देता हैं । बाद में मन इन्द्रिय के साथ जुड़ जाने से इन्द्रिय अपने विषय के साथ जड जाती है और परिणाम स्वरूप उस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान आत्मा में उत्पन्न होता हैं ।(७४)
(अनेक) प्रत्यक्ष ज्ञान युगपद् संभवित नहीं हैं । क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रिय-मनःसन्निकर्ष होना आवश्यक है और मन अणु होने से एक समय पर एक इन्द्रिय के साथ ही संयुक्त रह सकता हैं । एक साथ एक काल में अनेक इन्द्रियों के साथ उसका सन्निकर्ष संभव नहीं है ।(७५)
72. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।। (न्याय सूत्र १-१-४) । 73. Xx प्रत्यक्षं पूर्व
प्राधान्यादिति । किं कारणम् ? सर्वप्रमाणानां प्रत्यक्षपूर्वकत्वादिति (न्यायवा. १-१-३) । 74. एकदा खल्वयं विषयान्तरासक्तमना: सङ्कल्पवशाद् विषयान्तरं जिज्ञासमानः प्रयत्नप्रेरितेन मनसा इन्द्रियं संयोज्य तद्विषयान्तरं जानीते (न्याय भा. २-१-२७) 75. अस्ति खलु वै ज्ञानायौगापद्यमेकैकस्येन्द्रियस्य यथाविषयम् (न्याय भाष्य. ३-२-५६)
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