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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका ४७ संदेह के बाद में होनेवाले अन्वय धर्म के चिंतन को तर्क कहा जाता हैं अथवा नहीं जाने हुए विषय में कारणो की संगति से तत्त्वज्ञान के लिए जो विचारणा हो उसे तर्क कहा जाता हैं ।(६८) गुरु के साथ तत्त्वनिर्णय के लिए जो वार्तालाप हो उसे वाद कहा जाता हैं । न्यायसूत्र में वाद की व्याख्या करते हुए कहा हैं कि, प्रमाण, तर्क और साधन (हेतु) के उपालंभपूर्वक सिद्धांत से अविरुद्ध पंचावयव से युक्त पक्ष-प्रतिपक्ष का परिग्रह जिस में हो उसे वाद कहा जाता हैं ।(६९) दूसरो के साथ जितने की इच्छा से जो वाद हो उसे जल्प कहा जाता हैं । वस्तुतत्त्व को सोचे बिना बोलते रहना उसे वितंडा कहा जाता हैं अथवा स्वपक्ष की स्थापना किये बिना प्रतिवादि के पक्ष का खंडन करना उसे वितंडा कहा जाता हैं। साध्य का साधक हैतु न हो, परन्तु हेतु जैसे लगते हो, उसे हेत्वाभास कहा जाता हैं । उसके पाँच प्रकार हैं । असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट (बाध) और प्रकरणसम (सत्प्रतिपक्ष) । पाँच हेत्वाभास का वर्णन श्लोक-३१ की टीका में दिया हैं । दूसरे के वचनो का विघात करने के लिए असत् विकल्प खडे करना, उसे छल कहा जाता हैं । छल के तीन प्रकार है । वाक्छल, सामान्य छल और उपचार छल । इसका वर्णन श्लोक-३१ की टीका में दिया हैं । असम्यग् दूषणो को जाति कहा जाता है अथवा साधर्म्य और र्य द्वारा खंडन करना उसे जाति कहा जाता हैं । (७०) जाति के २४ प्रकार है । श्लोक-३१ की टीका में जाति के प्रकारो का सोदाहरण वर्णन किया गया है और टिप्पणी में असत उत्तर स्वरूप जाति का खंडन न्यायसूत्र के आधार पर किया गया है। ___ जो वचन बोलने से वादि (वक्ता) निगृहीत हो जाये, उसे निग्रहस्थान कहा जाता हैं । निग्रहस्थान २२ प्रकार के हैं । उसमें से कुछ विप्रतिपत्तिरूप और कुछ अप्रतिपत्तिरूप हैं ।(७१) साधनाभास में साधनबुद्धि और दूषणाभास में दूषणबुद्धि होना उसे विप्रतिपत्ति कहलाता हैं अर्थात् विपरीत स्वीकार करने से विप्रतिपत्ति निग्रहस्थान आता हैं और साधन का दूषण न बता सकना अथवा साधन में बताये हुए दूषण का उद्धार न करना उसे अप्रतिपत्ति कहा जाता है । २२ निग्रहस्थान का स्वरूप श्लोक-३२ की टीका में दिया गया हैं । नैयायिक दर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत : (१) ईश्वरवाद : न्यायदर्शन में ईश्वरवाद का सिद्धान्त अति महत्त्वपूर्ण है और वह एक मौलिक तत्त्व है । जिसके आधार पर उसके आचार एवं धर्म का विशाल दुर्ग खडा है । उसके मतानुसार ईश्वर के अनुग्रह के बिना जीव न तो प्रमेयों का यथार्थ ज्ञान पा सकता है और न इस जगत् के दुःखो से ही छुटकारा पाकर मोक्ष पा सकता है । इसलिए ईश्वर का स्वरूप अपने ग्रंथो में बहोत विस्तार से दिया है । ईश्वर का स्वरूप पूर्व में बताया ही है । यहाँ उल्लेखनीय है कि, नैयायिक दर्शन की ईश्वर विषयक मान्यता वेदान्तदर्शन से भिन्न है । नैयायिक दर्शन ईश्वर को जगत (विश्व) का निमित्तकारण मानता है परन्तु उपादान नहीं, जब कि, वेदांत दर्शन ईश्वर को निमित्त एवं उपादन कारण भी मानता है। ईश्वरसिद्धि नैयायिकों ने अनुमान से की है । इस ग्रंथ में ईश्वरवाद की विस्तार से रजुआत एवं समीक्षा की गई हैं । (२) पीठरपाकवाद : इस वाद का विवेचन प्रस्तुत भूमिका में ही वैशेषिकदर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत' के चेप्टर में किया ही हैं । इस लिए पुनः प्रतिपादन नहीं किया है । प्रमाण विचार : नैयायिक मतानुसार प्रमाण का सामान्य लक्षण पहले बताया है और प्रमाण की संख्या चार हैं । 68. अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तिस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः (न्या.सू. १-१-४०) । 69. प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न: पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः (न्या.सू. १-२-१) । 70. साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः (न्या.सू. १-२-१८) 71. विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । (न्या.सू. १-२-१९) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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