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________________ ४२२ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन और सुषुप्ति अवस्था में इन्द्रियों का व्यापार न होने से जाग्रदवस्था का लक्षण उन दो अवस्थाओं में अतिव्याप्त होता नहीं हैं। इन्द्रियजन्य ज्ञान का स्वरुप हैं, अन्तःकरणवृत्ति । अर्थात् अन्तःकरण की तत्तत्पदार्थ के आकार के तुल्य होनेवाली स्थिति। स्वप्नावस्था का स्वरुप बताते हुए कहा हैं कि, इन्द्रियाजन्यविषयगोचरापरोक्षान्तःकरणवृत्त्यवस्था स्वप्नावस्था।- इन्द्रियों से अजन्य एवं विषय गोचर, अपरोक्ष अन्तःकरण वृत्ति को स्वप्नावस्था कहते हैं। अर्थात् जिस अवस्था में इन्द्रियों का व्यापार उपरत होता हैं, ऐसा जो प्रातिभासिक विषयगोचर (कल्पित गजादि अधिष्ठानाकार) अपरोक्ष अन्तःकरणावस्था विशेष ही स्वप्नवस्था हैं सिद्धांतबिन्दु(३१२) ग्रंथ में स्वप्नावस्था का स्वरुप स्पष्ट करते हुए कहा हैं कि, जाग्रदवस्था कालीन भोगजनक कर्म का क्षय होने पर और स्वप्नावस्था कालीन भोगजनक कर्म का उदय होने पर निद्रा नाम की तामसी वृत्ति द्वारा स्थूलदेहाभिमान दूर होने पर (देवता के अनग्रह के अभाव के कारण) इन्द्रियाँ निर्व्यापार हो जाती हैं, इसलिए जीव स्वप्नावस्था को प्राप्त करता हैं । वहाँ अन्तःकरण गत वासना के निमित्त से इन्द्रियों का व्यापार न होने पर भी अर्थोपलम्भ होता हैं और वही स्वप्नावस्था हैं। उपरांत, वहाँ मन ही गज-तुरगादि अर्थाकार रुप में विवर्तित होता हैं। अविद्या की वृत्ति से गज-तुरगादि अर्थ उपलब्ध न होने पर भी उसकी प्रतीति होती हैं। इसलिए स्वप्न में प्रातिभासिक पदार्थ उपलब्ध होता हैं। सुषुप्ति अवस्था का स्वरुप बताते हुए कहा हैं कि, सुषुप्ति माविद्यागोचराऽविद्यावृत्त्यवस्था । जाग्रत्स्वप्नयोरविद्याकारवृत्तेरन्तःकरणवृत्तित्वान्न तत्रातिव्याप्तिः । ___ अविद्याविषयक अविद्या की वृत्ति को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं । जाग्रदवस्था और स्वप्नावस्था में जो अविद्याकारवृत्ति होती हैं, वह अन्तःकरण की वृत्ति हैं (अविद्या की नहीं) अतः इस सुषुप्ति लक्षण की उन दों अवस्थाओं में अतिव्याप्ति नहीं होती। कहने का मतलब यह हैं कि, सुषुप्ति अवस्था में अविद्यावृति का अविद्या (अज्ञान) ही विषय हैं, स्वप्न और जाग्रदवस्था में "मुझे घटज्ञान नहीं हो रहा हैं।" यह वृत्ति, अविद्याविषयक होने पर भी वह अन्तःकरणवृत्ति हैं, अविद्या की नहीं हैं। इस कारण से सुषुप्ति का लक्षण अन्य दो अवस्थाओं में अतिव्याप्त होता नहीं हैं। सिद्धांत बिन्दु( ३१३) में सुषुप्ति अवस्था का स्वरुप स्पष्ट करते हुए कहा हैं कि, जाग्रत या स्वप्न अवस्था में भोग्य वस्तु के भोग से बद्ध जीव थक जाता हैं। तब जीव के भोगसंपादक कर्मो का क्षय होने से सुषुप्ति अवस्था में जीव का अन्तःकरण अपने कारण अविद्या में सूक्ष्म रुप से रहता हैं । ज्ञान नामक वृत्ति का आधार अन्तःकरण अपने कारण अविद्या में लय पाते हुए बद्ध जीव विश्रामस्थानरुप सुषुप्ति अवस्था में चला जाता हैं। __ आध्यात्मिक दृष्टिकोप से उन तीन अवस्थाओं का तीन-तीन भेद श्रीशंकराचार्यने सर्ववेदांत-सिद्धांत-सारसंग्रह में बतायें हैं। उसका स्वरुप इस प्रकरण के अन्तिम चरण में समाविष्ट किया हैं। (३१२) जाग्रद्भोगजनककर्मक्षये स्वाप्नभोगजनककर्मोदये च सति निद्राख्यया तामस्या वृत्त्या स्थूलदेहाभिमाने दूरीकृते सर्वेन्द्रियेषु देवतानुग्रहाभावान्निापारतया लीनेषु विश्वोऽपि लीन इत्युच्यते । तदा च स्वप्नावस्था । तत्र अन्तःकरणगतवासनानिमित्त इन्द्रियवृत्त्यभावकालीनोऽर्थोपलम्भः स्वप्नः । (सिद्धान्तबिन्दु-८ टीका) (३१३) एवं जाग्रत्स्वप्नभोगद्वयेन श्रान्तस्य जीवस्य तदुभयकारणकर्मक्षये ज्ञानशक्त्यवच्छिन्नस्य सवासनस्यान्तःकरणस्य कारणात्मनाऽवस्थाने सति विश्रामस्थानं सुषुप्त्यवस्था (सिद्धान्तबिन्दु-८ टीका) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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