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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
केवलाद्वैतवादी श्रीशंकराचार्य ऐसे विवर्तवाद का स्वीकार करते हैं। जब कि विशिष्टाद्वैतवादी श्रीरामानुजाचार्य परिणामवाद = विकारवाद को मानते हैं ।
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यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, न्याय-वैशेषिक को मान्य असत्कार्यवाद का नाम आरंभवाद हैं और बौद्धो को मान्य असत्कार्यवाद का नाम प्रतीत्यसमुत्पादवाद हैं। न्याय-वैशेषिको के मतानुसार पहले नहीं थी ऐसी वस्तु का आरंभ होता हैं, इसलिए आरंभवाद के वे पुरस्कर्ता हैं । बौद्ध के मतानुसार कारणरुप वस्तु कार्यरुप वस्तु को जन्म देकर नाश होती हैं। कार्यक्षण (कार्यरुप वस्तु) भी एक ही क्षण रहती हैं और वह अन्यकार्यक्षण को जन्म देकर नाश होती हैं। ऐसी क्षणिक कारण-कार्य की परंपरा नित्य चलती रहती हैं। बौद्धो के इस कार्य कारणभाव के सिद्धांत को प्रतीत्यसमुत्पादवाद कहा जाता हैं। (उसकी विशेष माहीती बौद्धदर्शननिरुपणोत्तर में रहे हुए विशेषार्थ में देखें।) इस विषय की विशेष चर्चा अन्य ग्रंथो से जान लेना । श्रीवाचस्पति मिश्र ने सांख्यतत्त्व कौमुदी में नौंवी कारिका में इस वाद की विस्तृत चर्चा की हैं।
• कर्मविचार :- वेदांत मतानुसार अज्ञान के कारण जीव बंधन में फसाता हैं। बंधनग्रस्त अवस्था में जो कर्म करता हैं, वे पुण्य-पापरुपी फल देनेवाले होते हैं और उसके फलरूप सुख-दुःख प्राप्त होते हैं । वेदांतमत में कर्म तीन प्रकार के हैं : (१) संचितकर्म, (२) प्रारब्ध कर्म, और (३) क्रियमाण कर्म ।
( १ )संचितकर्म :- पहले किये कर्मों का फल संस्कार रुप में संचित हुआ हो और जो कर्मो के संस्कारो का फल मिलने की शुरुआत हुई न हो, उस कर्मों को संचित कर्म कहे जाते हैं । संचित कर्म पूर्वजन्म में किया हुआ और इस जन्म में भी किया हुआ होता हैं।
(२) प्रारब्ध कर्म :- जिन कर्मों का फल मिलना शुरु हुआ हो वह प्रारब्ध कर्म हैं। हम को प्राप्त हुए जन्म या सुख-दुःख प्रारब्धकर्म का फल हैं। प्रारब्ध कर्म भुगतने ही पडते हैं। भुगतने के बाद ही नाश होते हैं। ज्ञान से प्रारब्ध कर्म का नाश नहीं होता हैं। इसलिए ही ज्ञान हो जाने के बाद भी प्रारब्ध कर्म को भुगतने के लिए शरीर चालू रहता हैं, वे कर्म भुगत जाने के बाद शरीरपात होता हैं।
(३) क्रियमाण कर्म :- जो कर्म अभी किया जाता हैं, उसको क्रियमाण कर्म कहा जाता हैं । क्रियमाण कर्म संस्कार रूप से एकत्रित हो जाते हैं तब वह संचित कर्म बनते हैं और जब उसका फल मिलने की शुरुआत होती हैं, तब वे प्रारब्ध कर्म बनते हैं।
परंतु जिनको ज्ञान प्राप्त हुआ हैं, वह अपने जीवन के व्यवहार कर्तृत्वबुद्धि से नहीं करता हैं, इसलिए वे कर्म बंधनकर्ता नहीं बनते हैं, उस कर्मो का कोई प्रभाव नहीं रहता हैं। ज्ञान से संचितकर्म का नाश होता हैं । परन्तु प्रारब्धकर्म का नाश नहीं होता हैं । प्रारब्ध कर्म तो अवश्य भुगतने ही पडते हैं ।
• वेदांत मत में बद्ध संसारी जीव की तीन अवस्था :- जीव की तीन अवस्था का निरुपण करते हुए वेदांत परिभाषा में कहा हैं कि, स च जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिरुपावस्थात्रयवान् । तत्र (३१९ )जाग्रद्दशा नामेन्द्रियजन्यज्ञानावस्था । अवस्थान्तरे इन्द्रियाभावान्नातिव्याप्तिः । इन्द्रियजन्यज्ञानं चान्तःकरणवृत्तिः ।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन जीव की अवस्थाएँ होती हैं । उनमें से प्रथम अवस्था में इन्द्रियों के द्वारा बाह्यवस्तु का ज्ञान होता हैं। अर्थात् इन्द्रियजन्य ज्ञान जिस अवस्था में होता हैं, उसे जाग्रदवस्था कहा जाता है। स्वप्न ( ३११ ) इन्द्रियवृत्तिकालीनार्थोपलम्भो जागरणम्। (सिद्धांत बिन्दु-८)
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