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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
यद्यपि, विशिष्टाद्वैतवाद के समर्थक श्रीरामानुजाचार्य जगत को ब्रह्म का वास्तविक परिणाम समजते हैं। इसलिए उनके मतानुसार “परिणामवाद' हैं।
• विवर्त और विकार के बीच का भेद :- दोनो के बीच का भेद समजाते हुए वेदांतसार में कहा हैं कि, "सतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विकार इत्युदीरितः। अतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विवर्त इत्युदीरित :॥"
वस्तु में सतत्त्वतः अन्यथाभाव आये = परिवर्तन आये (अर्थात् वस्तु का मूल स्वरुप सतत्त्वतः अर्थात् सच्चेसच्चा पूर्णतः) बदल जाये, उसको विकार कहा जाता हैं। (जैसे कि, दूध दही का रुप प्राप्त करता हैं, तब दूध में आया हुआ परिवर्तन वास्तविक होता हैं ।)
अतत्त्वतः वस्तु में अन्यथाभाव आये = परिवर्तन आये (अर्थात् वस्तु का स्वरुप न बदले, परन्तु भ्रान्ति के कारण वस्तु बदली हुए दिखे) उसे विवर्त कहा जाता हैं । (जैसे कि रज्जु में सर्प दिखाई देता हैं, वह वास्तविक नहीं हैं, परन्तु भ्रान्तिजन्य प्रतीति हैं। रज्जु के स्वरुप में कोई बदलाव नहीं आता हैं, इसलिए ऐसे भ्रान्तिजन्य परिवर्तन को विवर्त कहा जाता हैं।
नित्य (काल से अनवच्छिन्न) होती हैं। व्यावहारिकी सत्ता केवल स्थितिकाल में (पदार्थ की उत्पत्ति से पूर्व और नाश के अनन्तर नहीं होती) होती हैं। कल्प के आरम्भ से उसके अन्त तक जो काल, उसे व्यवहारकाल कहते हैं, और उस काल में जो सत्ता, उसे व्यावहारिकी सत्ता कहते हैं। शुक्ति पर भासित होने वाला रजत, रज्जु पर भासित होनेवाला सर्प, (ये) प्रातिभासिक पदार्थ हैं, इनकी सत्ता उस प्रतिभासकाल में ही रहती हैं। अधिष्ठान के ज्ञान से उसका बाध होता हैं, इसलिए वह प्रातिभासिकी सत्ता हैं।
दूध, व्यावहारिक पदार्थ हैं, वह व्यावहारिकी सत्ता से युक्त हैं, उसे दहीं रूप कार्य का आकार प्राप्त होता हैं। उस दही रूप कार्य की सत्ता भी व्यावहारिकी ही होती हैं, इसलिए दूध रूप उपादान कारण से 'दहीं' रूप समसत्ताक कार्य उत्पन्न होता हैं। इसलिये वह दूध का परिणाम हैं। इस लक्षण में कार्य को 'समसत्ताक' विशेषण जोडकर विवर्त में अतिव्याप्ति का वारण किया जाता हैं। अथवा व्यावहारिकी सत्ता से युक्त तन्तुओं को व्यावहारिकी सत्ता से युक्त पटभाव की प्राप्ति होना-परिणाम हैं। इस परिणाम से विवर्त पृथक् हैं। परिणाम के समान विवर्त भी कार्य हैं। इसलिये परिणाम का लक्षण कहने के अनन्तर प्रसंग प्राप्त विवर्त का भी लक्षण यहीं पर बताया हैं। विवर्त उसे कहते हैं- उपादान की सत्ता से जिसकी सत्ता विषम हैं, ऐसे कार्य की उत्पत्ति । विवर्त में अतिव्याप्ति के वारणार्थ परिणाम के लक्षण में जैसे 'समसत्ताक' विशेषण दिया हैं वैसे ही परिणाम में अतिव्याप्ति के वारणार्थ विवर्त के लक्षण में 'विषम सत्ताक' विशेषण दिया है। परन्तु प्रातिभासिक-रजतादिकों में परिणामत्व और विवर्तत्व दोनों धर्म रहते हैं- यह सूचित करने के लिये ही प्रातिभासिक रजत, अविद्या का परिणाम और चैतन्य का विवर्त हैं- ऐसा भूल में कहा हैं। जैसे तन्तु के परिणामरूप पट को तन्तुदेशत्व (जहाँ तन्तु रहते हैं वहीं पर पट रहता हैं) हैं, वैसे ही अविद्या के परिणामरूप शुक्तिरुप्य को अविद्यादेशत्व (जहाँ अविद्या रहती हैं वहाँ वह शुक्तिरजत रहता है) हैं। अविद्या, चैतन्यनिष्ठ होती हैं इसलिये शुक्तिरूप्य भी चैतन्यनिष्ठ होता हैं। इस आशय से मूल में अविद्या परिणामरूप शुक्तिरजत, अविद्या के अधिष्ठानरूप इदमवच्छिन्न चैतन्य में रहता हैं--कहा हैं । इस वाक्य से निम्नलिखित आशंका का निरसन किया गया हैं-- __ शंका--अविद्यापरिणामरूपरजत, अविद्या में तादात्म्य सम्बन्ध से रहता हैं, तब अविद्या में तादात्म्य सम्बन्ध से रहनेवाले रजत को चैतन्योपादानत्व (चैतन्य, उसका उपादान हैं) नहीं बनता । जब कि चैतन्य में रजत, अविद्यासम्बन्ध से रहता हैं तब 'उसे उपादानविषमसत्ताक कार्यापत्तिरूप विवर्तत्व' कैसे?
समाधान--अविद्यापरिणामरूप रजत, अविद्याधिष्ठान के आश्रय से रहने के कारण उसे विवर्तत्व हो जाता हैं क्योंकि 'अविद्यापरिणामरूप रजत, अविद्या के अधिष्ठानभूत चैतन्य के आश्रय से रहता हैं' यह नियम हैं। क्योंकि हमारे मत में सभी कार्यो में, उन कार्यो के उपादानभूत अविद्या के अधिष्ठान का आश्रितत्व नियम से रहता हैं। कोई भी कार्य अपने उपादान कारण के अधिष्ठान के आश्रय से रहता हैं। इसलिए प्रातिभासिक रजत, आविद्या का परिणाम हैं और चैतन्य का विवर्त हैं। अब कोई दोष नहीं हैं। (वेदांतपरिभाषा- श्रीगजानन शास्त्रीकृत 'प्रकाश' हिन्दी व्याख्या)
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