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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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सत्-असत् कार्यवाद :- जैनदर्शन सत्-असत् कार्यवाद का स्वीकार करता हैं । कार्योत्पत्ति से पहले कारण में कार्य अपेक्षा से विद्यमान (सत्) हैं, और अपेक्षा से अविद्यमान (असत्) हैं। जैसे कि, घटरुप कार्य, घटोत्पत्ति से पहले उसके कारणरुप मिट्टी में मृत्पिडंरुपेण विद्यमान होता हैं और पृथुबुध्नादिआकरविशेषरुपेण (घटाकाररुपेण) अविद्यमान (असत्) होता हैं। घटोत्पत्ति से पूर्व, कार्य मिट्टी में (कारणमें) मृत्पिडरुपेण विद्यमान होने के कारण ही घटोत्पत्ति के बाद "यह मिट्टी का घडा हैं" ऐसा ज्ञान होता हैं और घटाकाररुपेण अविद्यमान होने के कारण ही मिट्टी की अंदर ही "यह घट हैं" ऐसा ज्ञान नहीं होता हैं।
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, सांख्यदर्शन और वेदांतदर्शन दोनों सत्कार्यवाद के अनुयायी होने पर भी दोनों की मान्यताओं के बीच बहोत अंतर हैं । सांख्यदर्शन परिणामवादी हैं या विकारवादी हैं, जब कि वेदांतदर्शन विर्वतवादी हैं।
सांख्यदर्शन के मतानुसार कार्य की उत्पत्ति में कोई नई क्रिया नहीं हुई हैं। परंतु कारण की अवस्था में परिवर्तन होता हैं। अर्थात् कारण स्वयं ही अवस्था बदलकर कार्यरुप में दिखता हैं। मिट्टी (मिट्टीरुप से नष्ट होकर) घटरुप में परिणमित होती हैं- इस मान्यता को परिणामवाद या विकारवाद कहा जाता हैं । सांख्यदर्शन उपादान में (उपादान कारण में) वास्तविक विकार या परिणाम मानते हैं। क्योंकि, वह नवीनरुप धारण करता हैं । जो आकार "असत्" था वह "सत्'' हो जाता हैं।
अद्वैतवेदांती कारण के अवस्था परिवर्तन या परिणाम या विकार में नहीं मानते हैं। उनके मतानुसार अवस्था परिवर्तन भ्रान्ति हैं। श्रीशंकराचार्य का इस विषय में कथन हैं कि, सांख्य के परिणाम या विकारवाद की मान्यता से सत्कार्यवाद का ही भंग हो जाता हैं । क्योंकि आकार का वास्तविक परिवर्तन तब कहा जा सकता है कि जो "आकार" अपनी सत्ता अलग रख सके । आकार तो उपादानरुप द्रव्य की एक अवस्थामात्र हैं, जो उस द्रव्यरुप उपादान से अभिन्न हैं। इसलिए आकार के पृथक् अस्तित्व की कल्पना भी नहीं हो सकती।
अद्वैतवेदांती अपनी बात स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि, कार्य, कारण में पूर्व ही अवस्थित होता हैं, वह बात सत्य हैं, ऐसा मानना उचित नहीं हैं। क्योंकि, कारण वही सत्य हैं, जो कार्य जैसा लगता हैं, वह कार्य कारण का परिणाम नहीं हैं, परंतु आभास हैं। क्योंकि समग्र विश्व का कारण एकमेव ब्रह्म हैं और ब्रह्म से अतिरिक्त दूसरा कुछ सत् ही नहीं हैं। ब्रह्म में से नामरुपात्मक जगत् उत्पन्न होता दिखाई देता हैं, वह आभास हैं, भ्रम हैं, विवर्त हैं। रज्जु में सर्प के विवर्त की तरह ही यहा समजना।
यहाँ उल्लेखनीय है कि, केवलाद्वैत वेदांती पारमार्थिक सत्ता की दृष्टि से ही "विवर्तवाद" को मानते हैं। वे व्यवहारिक सत्ता का भी स्वीकार करते हैं। और उस तरह के व्यवहार में वे "परिणामवाद" का स्वीकार करते हैं । (३१०)
(३१०) 'परिणामो नाम उपादानसमयसत्ताककार्यापत्तिः, विवर्तो नाम उपादानविषमसत्ताक-कार्यापत्तिः! प्रातिभासिक रजतं चाविद्यापेक्षया परिणाम; चैतन्यापेक्षया विवर्त इति चोच्यते । अविद्यापरिणामरूपं च तद्रजतमविद्याधिष्ठाने इदमवच्छिन्न-चैतन्ये वर्तते । अस्मन्मते सर्वस्यापि कार्यस्य स्वोपादानाविद्याधिष्ठानाश्रितत्वनियमात् ॥
जिस कारण से अभिन्नतया (भिन्न न होकर) कार्य उत्पन्न होता हैं, वह, उसका (कार्य का) उपादान कारण कहा जाता हैं। घटरूपकार्य, मृत्तिका से अभिन्न रहकर ही उत्पन्न होता हैं, इसलिए मृत्तिका, घट की उपादान-कारण हैं। जिस कार्य की सत्ता, अपने उपादान-कारण की सत्ता जैसी ही होती हैं. ऐसे कार्य की प्राप्ति होना (कारण का, समसत्ताक कार्य के आकार से पैदा होना) परिणाम हैं। सत्ता त्रिविध (तीन प्रकार की) होती हैं, पारमार्थिकी, व्यावहारिकी, और प्रातिभासिकी। ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिकी होती हैं। आकाशादि प्रपंच की सत्ता व्यावहारिकी हैं। और शक्तिरजतादि भ्रान्त पदार्थो की सत्ता, प्रातिभासिकी हैं। पारमार्थिकी सत्ता
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