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________________ ४१८ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ज्ञाता को ऐसा अनुभव होता हैं कि, मैं ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, परम आनंद स्वरुप, अनन्त, अखंड ब्रह्म हैं। उस समय चित्तवृत्ति ब्रह्म को विषय बनाकर उसके विषय के अज्ञान को नष्ट करती हैं, परंतु उसके बाद सामान्य वस्तु के ज्ञान जैसी प्रक्रिया रहती नहीं हैं। ब्रह्मसंबंधी अज्ञान नष्ट होते ही उस अज्ञान से उत्पन्न सर्व सृष्टि नष्ट हो जाती हैं। जैसे पट के कारण तंतु जल जाने पर पट भी जल ही जाता हैं, वैसा यहाँ होता हैं। संपूर्ण "सृष्टि' में अनुभव करनेवाले ज्ञाता या प्रमाता की चित्तवृत्ति भी आ जाती हैं। इसलिए सृष्टि नष्ट होने पर चित्तवृत्ति स्वयं ही नष्ट हो जाती हैं। इसलिए वह चित्प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु को यहाँ ब्रह्म को प्रकाशित करने का काम करती नहीं हैं। जैसे दीया सामान्य वस्तु को प्रकाश में ला सकता हैं, वैसे चित्प्रतिबिम्ब सामान्य वस्तु को प्रकाशित करता हैं, परंतु दीया सूर्य को प्रकाशित नहीं करता हैं, और उल्टा उससे अभिभूत हो जाता हैं वैसे चित्प्रतिबिम्ब ब्रह्म को प्रकाशित तो करता ही नहीं हैं उल्टा उससे हतप्रभ हो जाता हैं। जैसे दर्पण नष्ट होने से उसमें पडता प्रतिबिम्ब भी नष्ट हो जाता हैं और मात्र बिम्ब ही रहता हैं वैसे चित्तवृत्ति का नाश होने से प्रतिबिम्ब रहता ही नहीं हैं, केवल बिम्ब ब्रह्म ही रहता हैं। इस प्रकार "अहं ब्रह्मास्मि" की अनुभूति होने से "अहम्" भी खत्म हो जाता हैं और केवल ब्रह्म ही बाकी रहता हैं। ब्रह्मज्ञान में चित्तवृत्ति द्वारा ब्रह्मविषयक अज्ञान का नाश होता हैं इसलिए "वृत्ति व्याप्ति'' होती हैं। उस अर्थ में मनसैवानुद्रष्टव्यम् यह श्रुतिवाक्य सत्य हैं। परंतु अज्ञान नष्ट होने के बाद ब्रह्मज्ञान में चित्तवृत्ति का विलय हो जाता होने से "फलव्याप्यत्व" होता नहीं हैं। उस अर्थ में यन्मनसा न मनुते यह श्रुतिवाक्य सच्चा हैं। कारण-कार्य-संबंधः- सत्कार्यवाद-असत्कार्यवाद इस जगत में किसी भी कार्य की उत्पत्ति कारण के बिना नहीं होती हैं। सृष्टिरुप कार्य भी कारण के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। किसी भी कार्य का कारण मिल जाने के बाद एक प्रश्न उपस्थित होता हैं कि, कार्य की उत्पत्ति में कारण का योगदान कितना हैं ? एक बात तो निश्चित हैं कि, कारण, कार्य से पहले विद्यमान होता हैं और होना ही चाहिए । कार्य से पहले कारण की विद्यमानता तो प्रत्येक दर्शनकार स्वीकार करते हैं। परंतु कारण-कार्य के बीच के संबंध के विषय में दार्शनिको में भिन्न-भिन्न मान्यतायें प्रवर्तित हैं। चार्वाक के मतानुसार कार्य की उत्पत्ति किसी कारण में से होती हैं, ऐसा मानने की जरुरत नहीं हैं। उनके मतानुसार कार्य की उत्पत्ति स्वभावतः ही होती हैं.। अन्य दार्शनिक कार्य-कारण के बीच के संबंध को स्वीकार करते हैं और उस संबंध के विषय की चर्चा प्रत्येक दर्शनकारो ने अपने ग्रंथो में भी की हैं। सामान्यतः कार्य-कारण के संबंधविषयक तीन वाद प्रवर्तित हैं । (१) सत्कार्यवाद, (२) असत्कार्यवाद, (३) सत्-असत् कार्यवाद । सत्कार्यवाद :- सांख्यदर्शन, योगदर्शन और वेदांतदर्शन सत्कार्यवाद को मानते हैं। सत्कार्यवाद अर्थात् कार्य की उत्पत्ति से पहले कारण में हमेशां कार्य विद्यमान् (सत्) होता ही हैं । जब कार्य उत्पन्न होता हैं तब कारण में अप्रगटरुप से रहा हुआ कार्य ही, प्रगटरुप में बाहर आता हैं । (सांख्यदर्शन के सत्कार्यवाद को सांख्यदर्शन के विशेषार्थ में देखें।) असत्कार्यवाद :- इस मत के पुरस्कर्ता नैयायिक-वैशेषिक और बौद्धदर्शन हैं। असत्कार्यवाद अर्थात् कार्य की उत्पत्ति से पहले कारण में विद्यमान नहीं होता हैं । (असत् ।) परंतु कारण सामग्री के बल से नया ही कार्य उत्पन्न होता हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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