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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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वह उचित नहीं हैं। (२)जो दूसरे पद का अर्थ (पहले पद के स्थान पर लेना होता हैं वह) की प्रतीति वह पद प्रत्यक्ष आता होने से अभिधा द्वारा ही होती हैं। इसलिए लक्षणा द्वारा उसके अर्थ की प्रतीति की कोई आवश्यकता नहीं हैं। इस प्रकार अजहल्लक्षणा से भी तत्त्वमसि का अर्थ नहीं समजाया जा सकता। ___ इस प्रकार दोनों प्रचलित लक्षणा से तत्त्वमसि इस उपदेश वाक्य का अर्थ करने में कठिनाइ होने से वेदान्तसार में उसका अर्थ करने के लिए एक अलग जहल्लक्षणा अथवा भागत्याग लक्षणा का आश्रय लिया गया हैं । तत् के अर्थ में दो भाग हैं परोक्षार्थत्वविशिष्टत्व और चैतन्य तथा त्वम् के अर्थ में भी अपरोक्षार्थत्वविशिष्टत्व और चैतन्य ऐसे दो भाग हैं। तत् और त्वम् के अर्थो में रहे हुए ये दो भागो में से क्रमशः परोक्षार्थत्वविशिष्टत्व और अपरोक्षार्थत्वविशिष्टत्व ये भाग ही विरोधी हैं। बाकी का भाग शुद्धचैतन्य दोनो में समान हैं। इसलिए दो विरोधी भागो का त्याग करके और दो समान भागो को रखकर यहाँ लक्षणा हो सकेगी। यहाँ भाग का त्याग करना होने से यह लक्षणा भागत्याग लक्षणा हैं, तो यहाँ एक अर्थांश का त्याग करना हैं (जहत् ) और दूसरे अर्थांश का त्याग करना नहीं हैं । (अजहत् ) इसलिए यह जहदजहल्लक्षणा हुई।
इसी अनुसार सोऽयं देवदत्त का अर्थ जहदजहल्लक्षणा से होता हैं । सः तत्कालविशिष्टदेवदत्त और अयम् एतत्कालविशिष्ट देवदत्त । यहाँ तत्कालविशिष्टत्व और एतत्कालविशिष्टत्व इन विरोधी अर्थांशो का त्याग करके और समान अर्थरुप देवदत्त को रखकर सः और अयम् का सामानाधिकरण्य सिद्ध होगा। भूतकाल में देखा हुआ और वर्तमानकाल में दिखाई देता देवदत्त एक ही हैं।
अनुभववाक्य का अर्थदर्शन :'अहं ब्रह्मास्मि' इस महावाक्य को अनुभववाक्य कहते हैं । शिष्य जब तत्त्वमसि वाक्य का उपदेश यथार्थ रुप से ग्रहण करे तब उसको ब्रह्म की अपरोक्षानुभूति होती हैं, और तब वह "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा समजने लगता हैं । इस अनुभूति से चित्तवृत्ति के उपर की प्रक्रिया समजने जैसी हैं ।
केवलाद्वैतवेदान्त में जब किसी भी वस्तु का ज्ञान होता हैं तब चित्तवृत्ति दो प्रकार की प्रक्रिया का अनुभव करती हैं। जब हम किसी भी वस्तु का अनुभव करते हैं तब चित्तवृत्ति उस वस्तु के आकार से आकारित हो जाती हैं और उस वस्तु को अपना विषय बनाकर उसके बारे में अज्ञान नष्ट करती हैं। उदा, मनुष्य जब घट को देखता हैं, तब चित्तवृत्ति घटाकार बन जाती हैं और घट को अपना विषय बनाकर उसके बारे में अपना अज्ञान नष्ट करती हैं। इसको कहा जाता हैं "वृत्तिव्याप्ति' ये हुए सामान्य वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते समय हुई प्रथम प्रक्रिया, उसके बाद चित्तवृत्ति में प्रतिबिम्बित चैतन्य जिसको "चित्प्रतिबिम्ब'' कहते हैं, वह उस वस्तु को प्रकाशित करती हैं। यह हुई दूसरी प्रक्रिया, इसको कहते हैं - "फलव्याप्ति" अथवा "फलव्याप्यत्व"।
प्रकाश भी इसी तरह से हमारे पास किसी भी वस्तु को प्रकाशित करता हैं, वह भी दो क्रियायें ही करता हैं, एक तो वस्तु को घिरे हुए और वस्तु को हम से अदृश्य रखते अंधकार को वह दूर करता हैं और वस्तु को हमारे सामने प्रकाशित करता हैं। अद्वैत वेदांतीयों के अनुसार किसी भी वस्तु के सामान्यज्ञानसमय इसी अनुसार होता हैं। परंतु ब्रह्मज्ञान के समय की प्रक्रिया भिन्न हैं। उसमें पहली ही क्रिया बनती हैं, दूसरी क्रिया बनती नहीं हैं। ब्रह्मज्ञान होने से चित्तवृत्ति दूसरी सामान्य वस्तु के ज्ञान की तरह ही ब्रह्म के आकार से आकारित हो जाती हैं और
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