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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
अथवा सः और अयम् के बीच शक्यार्थ में भी एकता अपेक्षित हैं। अर्थात् उनके बीच अखंडैकरस एकता अभिप्रेत
इस प्रकार सोऽयं देवदतः में जैसे सः और अयम् के बीच विरोध आता हैं, वैसे तत्त्वमसि में तत् और त्वम् के बीच मुख्यार्थ में विरोध आने से मुख्यार्थबाध होता हैं, इसलिए हम को “लक्षणा" लेने की जरुरत पडती हैं।
अब लक्षणा के सामान्य रुप से दो प्रकार हैं । (१) लक्षण-लक्षणा अथवा जहल्लक्षणा और (२) उपादानलक्षणा अथवा अजहल्लक्षणा । जहल्लक्षणाका दृष्टांत हैं -गगायां घोषः प्रतिवसति । - गंगा में घोष रहता हैं । गंगा का मुख्यार्थ होता हैं "गंगाप्रवाह" । प्रवाह में घोष नहीं बस सकता इसलिए यहाँ मुख्यार्थबाध होता हैं। इसलिए "गंगाप्रवाह' ऐसा मुख्यार्थ संपूर्णतः छोडकर पास का 'गंगातीर' अर्थ लेना पडता हैं । इस प्रकार जहल्लक्षणा में मुख्यार्थ को संपूर्ण छोड देना पडता हैं।
तत्त्वमसि वाक्य में यह जहल्लक्षणा नहीं चलेगी, जैसे कि तत् अर्थात् परोक्षादिविशिष्टचैतन्य । और त्वम् अर्थात् अपरोक्षादिविशिष्टचैतन्य । इन दोनों के अर्थ में परोक्षादिविशिष्टत्व और त्वम् अपरोक्षादिविशिष्टत्व विरोधी हैं। उन अर्थो का संपूर्ण त्याग करने से "शुद्धचैतन्य'' यह अभिप्रेत अर्थ नहीं निकलता हैं ।
यहाँ ऐसी शंका की गई हैं कि 'तत् त्वम् असि' में तत् अपने अर्थ का संपूर्ण त्याग करे और पास के त्वम् के अर्थ को स्वीकार करे तो जहल्लक्षणा क्यों न हो?
यह शंका उचित नहीं हैं। क्योंकि 'गङ्गायां घोषः प्रतिवसति' ये वाक्य में "तोर' दिया ही नहीं हैं इसलिए अभिधा द्वारा उसकी जानकारी नहीं होती हैं। इसलिए लक्षणा से "तीर" अर्थ को लेने की जरुरत पडी। जब कि यहाँ तो तत् और त्वम् पद दिये हुए हैं, इसलिए अभिधा से ही उनके अर्थ की प्रतीति हो सकती हैं। इसके लिए लक्षणा लेने की जरुरत नहीं हैं ।
शोणो धावति (लाल दौडता है) यह अजहल्लक्षणा का दृष्टांत हैं। घोडे दौड रहे हो तब उसमें से कोई खास घोडे के लिए "वह लाल दौड रहा हैं" ऐसा हम बोलते हैं ; परन्तु लाल तो रंग हैं, गुण हैं, वह किस तरह से दौडेगा? इसलिए मुख्यार्थबाध होता हैं, इसलिए हम शोणः का अर्थ शोण: अश्वः करते हैं। इसलिए उसको अजहल्लक्षणा कही जाती हैं। इस प्रकार अजहल्लक्षणा में अपने अर्थ को छोडे बगैर अर्थ की संगति के लिए अपने साथ जुडा हुआ दूसरा अर्थ लेना होता हैं। ___ तत्त्वमसि का अर्थ समजने में अजहल्लक्षणा भी नहीं ले सकते । तत् के परोक्षत्वादिविशिष्ट चैतन्य और त्वम् के अपरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्य अर्थ को न छोडे तो परोक्षत्वादिविशिष्टत्व और अपरोक्षत्वादिविशिष्टत्व के बीच का विरोध किसी भी तरह से दूर नहीं होगा। यहाँ ऐसी शंका की गई हैं कि, यदि तत् पद अपने अर्थ का एक विरुद्ध अंश परोक्षत्वादिविशिष्टत्वका त्याग करे और उसके स्थान पे बचे हुए "शुद्ध चैतन्य'" अर्थ के साथ त्वम् पद के अपरोक्षत्वादिविशिष्टत्व अंश को जोड दे; अथवा इससे विपरीत त्वम् पद अपने अर्थ का विरुद्धांश छोड दे और बचे हुए "चैतन्य' उस अर्थांश के साथ तत् पद के परोक्षत्वादि विशिष्टत्व अंश जोडे दे तो अजहल्लक्षणा से चले, वैसा हैं और नयी लक्षणा नहीं लेनी पडेगी।
परंतु ऐसा करने में दो दोष आते हैं : (१) एक पद अपने अर्थ का अंश ही स्वीकार करे और दूसरा अंश छोड दे वह एक लक्षणा हुए और दूसरे पद का अर्थ धारण करे, वह दूसरी लक्षणा हुइ । इस प्रकार उभयलक्षणा होगी,
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