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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन इस अनुसार से अद्वैतवेदांत में तीन प्रकार की सत्ता का वर्णन किया हैं । उनके द्वारा कल्पित "माया" व्यावहारिक सत्ता की कोटि में आती हैं। क्योंकि ब्रह्मज्ञान होने से उसका बाध होता हैं । यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, प्रातिभासिक सत्ता (भ्रमस्थल) के विषय में अद्वैत वेदांती अनिर्वचनीयता ख्याति को मानते हैं। शुक्ति में रजत का प्रतिभास (प्रतीति) होता हैं, उसके संबंध में विभिन्न दार्शनिको ने अपनी-अपनी दृष्टि से विचार किया हैं। अद्वैतवेदांतीओं ने रज्जु-सर्प या शुक्ति-रजत जैसे स्थानो में अनिर्विचनीयता ख्याति को मानते हैं। रज्जु के बारे में या शुक्ति के बारे में हुए सर्प या रजत के ज्ञान को "सत्" इसलिए नहीं कहा जा सकता कि, वह दीपक के प्रकाश में बाधित हो जाता हैं। और उसको "असत्" भी इसलिए नहीं कहा जा सकता कि, उस ज्ञान से भय पैदा होता हैं। इसलिए वह सर्प या रजत के ज्ञान को उभयविलक्षण (सत् और असत् से विलक्षण) 'अनिर्वचनीय" कहा जाता हैं। अविद्या के कारण वैसा ज्ञान होता हैं, उसी तरह से " जगत्" की कल्पना भी 'अनिर्वचनीय " हैं । 44 44 यहाँ अवसरप्राप्त ‘“शुक्ताविदं रजतम्" स्थान पे विभिन्न दार्शनिक उस भ्रमात्मक ज्ञान को किस नाम से स्वीकार करते हैं, वह देखेंगे । -(१) विज्ञानवादि बौद्ध "आत्मख्याति" और माध्यमिक बौद्ध " असत्ख्याति" मानते हैं। (२) पूर्वमीमांसक‘“अख्याति'' मानते हैं। (३) नैयायिक- वैशेषिक - जैन " अन्यथाख्याति'' (विपरीताख्याति) मानते हैं। (४) उत्तर मीमांसक - अद्वैत वेदांती "अनिर्वचनीयता - ख्याति " मानते हैं । (५) विशिष्टाद्वैतवेदांती और सांख्य‘“सत्ख्याति” मानते हैं । - इस तरह से छः ख्यातियाँ हैं। इसकी विशेष समजूती प्रमाणनय तत्त्वालोक ग्रंथ में दी गई हैं । (३०८) (३०८ ) यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ॥ ११ ॥ (प्रमाणनय तत्त्वालोक) शुक्तिकायामरजताकारायां रजताकारेण यज्ज्ञानं स विपर्यय:- विपरीतख्यातिरित्यर्थः । ४१३ ख्यातयो बहुविधा:, यथा- आत्मख्यातिः, असत्ख्यातिः, अख्यातिः, अनिर्वचनख्यातिः, सत्ख्यातिः, अन्यथाख्यातिश्चेति । तत्रआत्मख्यातिः-आत्मन: ज्ञानस्यैव ख्यातिः - विषयरूपतया भानम्, अयमर्थ:- 'शुक्ताविदं रजतम्' इत्यत्र ज्ञानस्यैव रजतरूपतया भान भवति, न च तत्र कश्चिद् बाह्योऽर्थो विद्यते, 'अयं घट:' इत्यादिषु सर्वत्र ज्ञानस्यैव विषयरूपतया प्रतिभासमानत्वात्, इति योगाचारापरर्यायविज्ञानवादिनो बौद्धाः । असत्ख्याति :- असतो रजतादेः ख्यातिः प्रतीति:, तथाहि - 'शुक्ताविदं रजतम्' इति प्रतिभासमानं वस्तु न ज्ञानरुपं भवितुमर्हति 'अहं रजतम्' इति अन्तर्मुखाकारतयाऽप्रतिभासमानत्वात्, नाप्यर्थरूपम्, रजतसाध्याया अर्थक्रियाया आभावात्, तस्मादसदेव रजतं तत्र चकास्तीत्यसत्ख्यातिरिति माध्यमिकापरपर्यायशून्यवादिनो बौद्धाः । अख्यातिरप्रतीति:- विवेकाख्यातिरित्यर्थः । शुक्ताविदं रजतमित्यत्र प्रत्यक्षस्मरणरूपं प्रत्ययद्वयमुत्पद्यते, तत्रेदमंशः प्रत्यक्षस्य विषय:, हट्टस्थादिरजतं तु स्मरणस्य विषयः, तयोः- प्रत्यक्षस्मरणयोः शुक्तिरजतयोश्चेन्द्रियदोषवशाद् भेदग्रहणं न भवतीति भेदा (ऽविवेका) ऽख्यातिरिति मीमांसकाः । अनिर्वचनीयख्यातिर्नाम सत्त्वेनासत्त्वेन चानिर्वचनीयस्य रजतादेः ख्यातिः प्रतीति: । तथाहि - 'शुक्ताविदं रजतम्, इत्यत्र रजतं न सद्' बाध्यमानत्वात्, सतो न बाध्यमानत्वं यथा सत्यरजतम्, नाप्यसत् प्रतीयमानत्वात्, असत् न प्रतीयते वन्ध्यास्तनन्धयवत्, तस्मादत्रानिर्विचनीयरजतोत्पत्तिरङ्गीकर्तव्या, इति अद्वैतवेदान्तिनः । सत्ख्यातिर्नाम सतोविद्यमानविषयस्य ख्यातिः - प्रतीति:, तथाहि - 'शुक्ताविदं रजतम्' इत्यत्र शुक्तौ विद्यमानस्यैव रजतांशस्य प्रतीति: “तदेव सदृशं तस्य यत् तद् द्रव्यैकदेशभाक्” इति नियमात् पञ्चीकरणप्रक्रियया च तत्र रजतांशानां विद्यमानत्वात् । अदृष्टवशात् तु भूयसामपि शुक्त्यंशानां न प्रतीतिः, स्वल्पानामापि रजतांशानां प्रतीतिर्भवति, अत: 'शुक्तौ इदं रजतम्' इति ज्ञानं यथार्थमेव, तत्र ज्ञानविषयस्य विद्यमानत्वात्, विषयव्यवहारबाधात् तु भ्रमत्वेन व्यवहार इति विशिष्टाद्वैतवेदान्तिनः । अन्यथाख्याति :- अन्यथा स्थितस्य वस्तुनोऽन्यरूपेण प्रतीतिः, तथाहि - अन्यथा स्थितस्य शुक्त्यादिरूपस्यार्थस्यान्यथारजतादिरुपेण प्रतिभासनमन्यथा - (विपरीत) - ख्यातिरिति जैनाः, नैयायिकाश्च । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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