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________________ ४१२ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन कहा जाता हैं । सांसारिक पदार्थो का कोई न कोई नाम होता हैं और कोई न कोई रुप होता हैं । यह नाम-रुपात्मक वस्तुओं की सत्ता सांसारिक व्यवहार के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। फिर भी ब्रह्मज्ञान हो, तब वे सभी बाधित हो जाते हैं। इसलिए नितान्त सत्य नहीं हैं। किसी वास्तविक वस्तु में होनेवाली मिथ्या प्रतीति को प्रातिभासिक कहा जाता हैं अर्थात् ऐसी सत्ता कि जो प्रतीतिकाल में तो सत्य स्वरुप प्रतिभासित हो, परंतु उत्तरकाल में बाधित हो जाये, उसको प्रातिभासिक सत्ता कहा जाता हैं। जैसे कि, रस्से में सांप की या सीप में रजत की सत्ता। श्रीशंकराचार्य ने "दृग-दृश्य-विवेक" नामक ग्रंथ में वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए जीव और जगत् का प्रातिभासिकत्व आठ श्लोक में समजाया हैं । (जो पहले (आगे) बताया हैं।) प्रातिभासिक सत्ता का स्पष्टीकरण नीचे की बाते सोचने से होगा। - (१) प्रातिभासिक वस्तु स्वप्न की तरह सच्ची नहीं होती हैं। (२) प्रातिभासिक वस्तु द्रष्टा से भिन्न नहीं होती हैं। (३) प्रातिभासिक वस्तु व्यावहारिक हो सकती हैं और सुख-दुःख दे सकती हैं। जैसे कि, छाया, प्रतिध्वनि, आभास, स्वप्न इत्यादि असत् होने पर भी सत्यवत् दिखाव से अर्थकारी होते हैं । (४) जहाँ रस्से में सर्प दिखे, वहाँ सर्प प्रातिभासिक हैं। वहाँ सर्प के ज्ञान से रस्से का ज्ञान ज्यादा सच नहीं हैं। क्योंकि, पहला ज्ञान बिलकुल गलत हैं। उसी ही तरह से चिडिया के ज्ञान से मनुष्य का ज्ञान ज्यादा सच नहीं हैं। क्योंकि दोनों ज्ञान मिथ्या हैं। केवल ब्रह्मज्ञान एक ही सत्य हैं। जिस ज्ञान का विषय बाध होता है, उस ज्ञान को भ्रांतिज्ञान या मिथ्याज्ञान कहा जाता हैं। मिथ्या यानी बिलकुल गलत नहीं, परन्तु जो गलत हो फिर भी सच्चे जैसा लगे और दूसरी दशा में बाध हो। (५) प्रातिभासिक वस्तु की उत्पत्ति, स्थिति और लय होते नहीं हैं, वह दृष्टिकाल में ही होती हैं। (६) प्रातिभासिक वस्तु के एक अंश की निवृत्ति नहीं होती हैं। जैसे स्वप्न में जागने के बाद स्वप्न के एक अंश की निवृत्ति नहीं होती हैं और सीप में दिखाई देते रुप में सीप के ज्ञान से एक अंश की निवृत्ति नहीं होती हैं, वैसे ब्रह्मज्ञान होने से थोडा सा जगत निवृत्त नहीं होता हैं । (७) प्रातिभासिक वस्तु निराकार होने से उसमें अंश-अंशी भाव नहीं बनता हैं । इसलिए उसमें स्वगत भेद नहीं बनता हैं । (८) प्रातिभासिक वस्तु की प्रतीति समकाल में होती हैं। मृगजल धीरे-धीरे सुखता नहीं हैं। उसी ही तरह से, कल्पित जगत धीरे धीरे अदृश्य नहीं होता हैं । ब्रह्मज्ञान होते ही एकसाथ निवृत्त होता हैं। (९) ज्ञानकाल में प्रातिभासिक वस्तु का त्रिकाल निषेध होता हैं। जो अज्ञानकाल में गलत हैं वह ज्ञानकाल में नहीं रह सकता । (१०) प्रातिभासिक वस्तु अधिष्ठान के साथ रहे इससे द्वैत नहीं होता हैं। आयने में दूसरा चेहरा दिखे इससे दो चेहरे नहीं होते हैं। (११) स्वप्न, स्वप्न के समय व्यावहारिक हैं, जागने के बाद वह प्रातिभासिक लगता हैं। (१२) प्रातिभासिक वस्तु में केवल ज्ञात सत्ता रहती हैं। इसलिए उसका ज्ञान हो तब अर्थकारी (सुख या दुःख देनेवाला) बनता हैं। अज्ञात रज्जु रुप सर्प से किसी को भय नहीं लगता हैं। (१३) कल्पित वस्तु की उसके अधिष्ठान के साथ एकता नहीं होती हैं। क्योंकि कल्पित का अस्तित्व अधिष्ठान के अस्तित्व से वस्तुतः अन्य नहीं हैं परन्तु अभिन्न हैं। वैसे ही ज्ञान होने से कल्पित का अस्तित्व बाध पाता हैं, इसलिए दोनो की एकता नहीं होती हैं। इसलिए ब्रह्म और जीव की एकता नहीं होती हैं । (१४) प्रातिभासिक सत्ता व्यावहारिक हो जाती हैं। उसका कारण यह हैं कि, अंत:करण और उसके धर्मो का (दोनों का) अध्यास आत्मा में होता हैं । जैसा स्वप्न में होता हैं वैसा जाग्रत में बनता हैं। - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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