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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ४११ भी ठीक नहीं हैं, इसमें अविद्या की स्थिति चित् के अधीन होने पर भी, चित् की स्थिति अज्ञान के अधीन नहीं हैं, क्योंकि वह स्वयं सिद्ध हैं ।(३०५) अब यहाँ शंका हो सकती हैं कि जब दोनों परस्पर अधीन नहीं हैं, तब क्या अविद्या एवं चित् स्वतंत्र हैं ? समान कालिक पदार्थो में भी अवच्छेद-अवच्छेदक भाव से अन्योन्याधीनत्व सम्बन्ध होता हैं। जैसे घट और घट के आकाश में अन्योन्याधीनत्व सम्बन्ध होता है। प्रमाण और प्रमेय में, प्रमेय के प्रमाणाधीनत्व होने के कारण परस्पराधीनत्व सम्बन्ध हैं। घट और आकाश दोनों स्वतंत्र हैं। घटाकाश इस व्यवहार में आकाश का अवच्छेदक घट हैं। इसीलिये घटाकाश को अवच्छेदक घट की अपेक्षा रहती हैं, अन्यथा महाकाश का घटाकाशादियों से भेद सिद्ध नहीं होगा। यह घट रुप उपाधि के कारण महाकाश से घटाकाश का भेद सिद्ध हैं। इसी तरह प्रमाण-प्रमेय में भी परस्पर अधीनता हैं - "प्रमीयते अनेनेति प्रमाणम्" इस व्युत्पत्ति से सिद्धप्रमाणपद, प्रमेय की प्रमा का कारण हैं। इसीलिए प्रमेय, प्रमाण के अधीन हैं, किन्तु प्रमेयहीन हो तो, प्रमाण किसका होगा? यही कारण हैं कि सप्तमपदार्थ रस में प्रमाण न होने के कारण, उसकी सिद्धि नहीं होती । यद्यपि प्रत्यक्षादि प्रमाण एवं घट आदि प्रमेय, ये दोनों स्वरुप से स्वतंत्र हैं, फिर भी पूर्वोक्त प्रकार से परस्पर अधीन हैं। फलतः प्रमेय न होने पर प्रमाण की सिद्धि नहीं होगी। उत्पत्ति और ज्ञान में प्रतिबन्ध न होने के कारण भी परस्पर आश्रय और आश्रयिभाव सम्बन्ध नहीं हो सकता हैं। चैत्र और मैत्र में परस्पर एक दूसरे पर आरुढ हैं, ऐसा स्वीकार करने पर आश्रयाश्रयीभाव सम्बन्ध सम्भव हो सकता हैं। जीव से कल्पित ईश्वर और ईश्वर से कल्पित जीव मानने पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होगा, क्योंकि सर्वप्रथम तो जीव से कल्पित ईश्वर सिद्ध हो, तब ईश्वर से कल्पित जीव सिद्ध होगा। इसी तरह एक दूसरे के आश्रितत्व सम्बन्ध मानने पर यही दोष उत्पन्न होगा, किन्तु शुद्ध चित् अज्ञान का आश्रय नहीं हैं, अत: यह दोष नहीं हो सकता । जीवाश्रिता ही अविद्या हैं, अतः ईश्वर और जीव की कल्पना करनेवाली जीवाश्रिता ही अविद्या हैं और सभी का अधिष्ठान ब्रह्म चेतन हैं । फलतः जीवाश्रित अविद्या मानने पर भी कोई आपत्ति नहीं हैं । (३०६) • सत्ताविचार :- अद्वैतवेदान्त में एकमेव ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता का स्वीकार किया हैं। ब्रह्म के सिवा तमाम दृश्य जगत मिथ्या हैं। फिर भी हमारी स्थूल इन्द्रियों से प्रतीत होते पदार्थों का (प्रत्यक्ष सांसारिक सत्ता) का अपलाप भी हो सके वैसा नहीं हैं। इसलिए अद्वैतवादी श्रीशंकराचार्य ने तीन प्रकार की (३०७ सत्ता का स्वीकार किया हैं। (१) प्रातिभासिक सत्ता, (२) व्यावहारिक सत्ता, (३) पारमार्थिक सत्ता । एक मात्र सत् ब्रह्म पारमार्थिक हैं। अर्थात् एक ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिक हैं । जो सत्ता तीन काल में कभी बाधित न हो ऐसी एकान्तिक सत्य (सत्) हो और जगत के अन्य पदार्थो से नितान्त विलक्षण हो उसको पारमार्थिक सत्ता कहा जाता हैं। अन्तर्जगत और बाह्यजगत्, कि जिसका ज्ञान, अंतःकरण और बाह्यकरणों से हो, वह आंतरजगत् और बाह्यजगत् की व्यावहारिक सत्ता हैं। जगत के व्यवहार के लिए संसार के तमाम पदार्थों में जो रहता हैं, उसे व्यावहारिक सत्ता (३०५) स्वनैकल्पिते देशे व्यक्तिः यद्वत् घटादिकम् । तथा जीवाश्रयाविद्यां मन्यन्ते ज्ञानकोविदाः ॥ प्रकीर्ण श्लोक (३०६) वाचस्पतिमित्रैस्तु जीवाश्रितैवाविद्या निगद्यते-तस्माज्जीवाश्रितत्वेऽपि अदोषः ।-अद्वैतसिद्धि, पृ.५८५ (३०७) त्रिविधं सत्त्वं पारमार्थिकं व्यावहारिकं प्रातिभासिकं च । पारमार्थिकं सत्त्वं ब्रह्मणः, व्यावहारिकं सत्त्वमाकाशादेः, प्रातिभासिकं सत्त्वं शुक्तिरजतादेः। तथा च घटः सन्निति प्रत्यक्षस्य व्यावहारिकसत्त्वविषयत्वेन प्रामाण्यम् । अस्मिन्पक्षे च घटादेब्रह्मणि निषेधो न स्वरुपेण, किन्तु पारमार्थिकत्वेनैवेति न विरोधः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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