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________________ ४०६ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन श्रीवाचस्पति मिश्र ने जीव-जगत और ब्रह्म के संबंध को समजाने के लिए "अवच्छेदवाद'' की विचारधारा की स्थापना की हैं और आभासवाद(२७४) - प्रतिबिंबवाद का विरोध किया हैं। भामती टीका में अन्यत्र बिंबवाद के साथ अपने सिद्धांतो को स्पष्ट करने के लिए उपमार्य भी दी हैं, परंतु जहाँ भी उनको प्रतिबिम्ब कहने की आवश्यकता पडी हैं, वहाँ अविद्या से कल्पित(२७५) जीव के लिए ही हैं। प्रतिबिम्बवाद( २७६ ): श्रीमधुसूदन सरस्वती ने सिद्धांतबिंदु ग्रंथ में(२७७) प्रतिबिम्बवाद की चर्चा इस प्रकार से की हैं - "अज्ञान में प्रतिबिंबित चैतन्य ईश्वर हैं और बुद्धि में प्रतिबिंबित चैतन्य जीव हैं। अज्ञान से अनुपहित बिंब चैतन्य शुद्ध चैतन्य हैं। (इस तरह से जीव, ईश्वर और ब्रह्म के विषय में प्रतिबिंबवाद में समज दी गई हैं।)- ऐसा संक्षेप शारीरिककार का मत हैं। प्रतिबिंब पारमार्थिक होने के कारण जहदजहल्लक्षणा से 'तत्त्वमसि' महावाक्य का अखंड अर्थबोध होता हैं - इसको प्रतिबिंबवाद कहा जाता हैं।" __ श्रीशंकराचार्य ने २७८) प्रतिबिंबवाद का वर्णन करते हुए शारीरिक भाष्य में कहा हैं कि, "ब्रह्म बिंबस्थानीय हैं और आत्मा (जीव) प्रतिबिंबस्थानीय हैं। जीवो में जो वृद्धि- हासत्वादि परिलक्षित होता हैं, वह भी प्रतिबिंबवाद में दृष्टिगत हो जाता हैं। जैसे पानी में पड़ा हुआ प्रतिबिंब वृद्धि होने से वृद्धि पाता हैं, पानी का हास होने से हास होता हैं और पानी हिलता हो तो प्रतिबिंब हिलता हैं। और पानी खंडित हो तो खंडित होता हैं। इस तरह से पानी के धर्मो की असर प्रतिबिंब में भिन्न-भिन्न परिवर्तन लाती हैं, परंतु जो सूर्य का प्रतिबिंब हैं, उस सूर्य के उपर उस प्रतिबिंब के परिवर्तनो की कोई असर नहीं पडती हैं। जैसे पानी में कंपन उत्पन्न हो तो प्रतिबिंब में कंपन उत्पन्न होगा, परंतु सूर्य में ऐसा नहीं होता हैं। उपरांत सूर्य का प्रतिबिंब अनेक जलपात्रो में गिरने से सूर्य के अनेक प्रतिबिंब दिखते हैं, फिर भी आकाश में तो सूर्य एक ही होता हैं। वैसे अनेक अज्ञानो में प्रतिबिंबित (२७४) श्रीवाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मसूत्र के रचनानुपपत्त्यधिकरण, वाक्यान्वयाधिकरण और अंशाधिकरणों में प्रतिबिन्बवाद के मत को अस्वीकार कर अवच्छेदवाद की स्थापना की हैं। सोपाधिक चेतन जीव, काल्पनिक नहीं हो सकता, अपितु जीव का स्वरुप तो है ही । अतः मुक्ति के लिए प्रयत्नशील जीव ही मुक्तिलाभ करता हैं। आभासवाद में जीवत्व का सर्वथा नाश हो जाता हैं, जिससे माध्यमिक बौद्ध का मत समर्थित हो जाता हैं। अत: अवच्छेदवादी को आभासवाद भी इष्ट नहीं हैं। भामती भाष्य में प्रतिबिम्बवाद का विरोध करते हुए कहा है कि, रुपरहित पदार्थो का, रुपरहित अन्तःकरणरुप उपाधि में बिम्ब प्रतिबिम्ब सम्भव नहीं हैं, क्योंकि रुपवान् द्रव्य, अत्यन्त स्वच्छ होने के कारण अन्य रुपवान् द्रव्यो का प्रतिबिम्ब ग्रहण कर सकता है। चिदात्मा रुपरहित और ज्ञानस्वरुप हैं। अतः इसका प्रतिबिम्ब सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द, गन्ध, एवं रसादियों की प्रतिबिम्बता (c/1) सम्भव नहीं हो सकती। (c/1) शब्दगन्धरसानां च कीदृशी प्रतिबिम्बिता -(भामती.१-१-१) (२७५)(क)अविद्योपाधानकल्पितावच्छेदो जीव: परमात्मप्रतिबिम्बकल्पः । (भामती शां.भा. २.२.१०) । अविद्योपाधानञ्च यद्यपि विद्यास्वभावे परमात्मनि न साक्षादस्ति तथा तत्प्रतिबिम्बकल्पजीवद्वारेण परस्मिन्नुच्यते ॥ भामती शां.भा.१.४.२२ (ख) श्री मित्रैः रचनानुपपत्त्यधिकरणे वाक्यान्वयाधिकरणे अंशाधिकरणे च प्रतिबिम्बवादो निराकृतः । (श्री शंकरात्प्रागद्वैतवादः पृ-३५) (२७६) प्रतिबिम्बवाद के प्रतिष्ठापक आचार्य सर्वज्ञात्ममुनि हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना 'संक्षेपशारीरिक', में प्रतिबिम्बवाद का विशदीकरण क्रिया हैं। उन्होंने आभासवाद एवं अवच्छेदवाद दोनो में दोष का दर्शन किया हैं, फलतः इन वादों से पृथक् बिम्बप्रतिबिम्बवाद की स्थापना की हैं (२७७) अज्ञानप्रतिबिम्बचैतन्यमीश्वरः, बुद्धिप्रतिबिम्बितं चैतन्यं जीवः । अज्ञानानुपहितं तु बिम्बचैतन्यं शुद्धमिति संक्षेपशारीरिककाराः । प्रतिबिम्बस्य च पारमार्थिकत्वाज्जहदजहल्लक्षणेव तत्त्वमसिपदेषु इदमेव च प्रतिबिम्बवादमाचक्षते (सिद्धांतबिन्दु- श्लो-१) (२७८) तदुच्यते बुद्धिहासभाक्तत्वमिति, जलगतो हि सूर्यप्रतिबिम्बो जलवृद्धौ वर्धते, जलहासे हासति, जलचलने चलति, जलभेदे भिद्यते, इत्येवं जलधर्मानविधायी भवति न त सर्यस्य तथात्वमसि । (ब.स.शां.भा.३.२.३०) तथा चोदकराशावादिकम्पनात्तदगते सूर्यप्रतिबिम्बे कम्पमानेऽपि न तद्वान् सूर्यः कम्पते । ब.सू.शां.भा.२.३.४६) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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