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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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"अवच्छेदवाद' की स्थापना की हैं। श्रीशंकराचार्य ने अपने उपनिषद् एवं(२६८) शारीरिक भाष्य में अनेक स्थान पे घटाकाश, मठाकाश आदि उद्धरण देकर आत्मा को आकाशवत् अनंत और जीव को घटाकाश, मठाकाश की समान परिच्छिन्न, सान्त और सीमित स्वीकार किया हैं। उसी उद्धरणों को सामने रखकर श्रीवाचस्पति मिश्र ने अवच्छेदवाद के सिद्धांत का विकास किया हैं । ब्रह्म महाकाश के सदृश अनन्त और जीव अपनी अविद्या के कारण घटाकाश के समान सीमित हैं और उसकी शक्ति भी सीमित हैं।
जैसे महाकाश घट की उपाधि से ढकते - अवच्छिन्न होते घटाकाश रुप में आविर्भूत होता हैं, वैसे ब्रह्म अज्ञान की उपाधि से अवच्छिन्न होने से अज्ञानोपहित बन जाता हैं। जीव अविद्या से अवच्छिन्न होने से स्वयं को अल्पज्ञ बना देता हैं। इसलिए अविद्या के कारण परमतत्त्व ब्रह्म, क्षुद्र जीव के रुप में परिवर्तित होता हैं। इस अवच्छिन्न होने की क्रिया को अवच्छेद कहा जाता हैं। इसलिए इस मान्यता को "अवच्छेदवाद" कहा जाता हैं।
वस्तुतः ईश्वर अज्ञान के विषयभूत चैतन्य हैं और जीव अज्ञान के आश्रयभूत चैतन्य हैं । स्वविषय के रुप में यह नानात्मक अज्ञान, ईश्वर केस्वरुप का अवच्छेदक हैं और आश्रय के रुप में जीव के स्वरुप का (२६९) अवच्छेदक हैं। अज्ञानोपहित जीव ही नानात्मक जगत का कल्पक है। जीव का क्ल्पत्व ही जीवगत(२७०) प्रपंच को भिन्न करता है।
(२७१) श्रीशंकराचार्य ने अपने शारीरिक भाष्य में जहाँ-जहाँ अवच्छेदवाद का संकेत दिया हैं, उस उस स्थान के उपर श्रीवाचस्पति मिश्र ने युक्तिपूर्वक स्वमत का स्थापन किया हैं। जैसे कि, घटाकाश का अभिप्राय परमाकाश से भिन्न नही परंतु महाकाश ही घटाकाश के रुप में परिवर्तित हो जाता हैं । घटाकाश और महाकाश की स्थिति, बहु विवेचनीय भी नहीं हैं। क्योंकि महाकाश की उपाधि घटाकाश तो केवल विभक्त होने के कारण लक्षित होती हैं । इस प्रकार से अनादि, अनिर्वचनीय अविद्या की उपाधि से कल्पित जीव, वास्तविक रुप में पृथक् नहीं हैं। परंतु उसकी उपाधि से उद्भावित और उद्भूत सदृश जीव, अभिभूत दिखाई देता हैं । वही परमात्मा, अविद्या के उपाधिभेद के कारण घटाकाश, मठाकाश के समान जीव के रुप में(२७२) प्रसिद्ध होता हैं। औपाधिक भेद होने के कारण घटाकाश के समान, भेदों के विरुद्ध धर्मों के संसर्ग से जीवो में अनेक धर्म(२७३) देखे जाते हैं । इस तरह से
(२६८) घटकरकगिरिगुहाधुपाधिसम्बन्ध इव व्योम्नि घटाच्छिद्रं करकाच्छिद्रमित्यादिराकाशाव्यतिरेकेऽपि, तत्कृता चाकाशे घटाकाशादिभेदमिथ्याबुद्धिदृष्टा । (ब्र. सू. शां.भा. १.१.५.) घटकरकाद्युपाधिवशादपरिच्छिन्नमपि नभः परिच्छिन्नवदवभासते तद्वत् । (ब्र.सू.शा.भा.१.२.६) एकस्यैव तु भेदव्यवहार उपाधिकृतः, यथा घटाकाशो महाकाश इति । (ब्र.सू.शां.भा. १.२.३०) यस्तु सर्वेश्वरेषूपाधिभिविनोपलक्ष्यते परमात्मैव स भवति । यथा घटादिच्छिद्राणि घटादिभिरूपाधिभिविनोपलक्ष्यमाणानि महाकाश एव भवन्ति तद्वत् प्राणभृत: (ब्र.सू. शां. भा.१.३.३२) (२६९) जगत अज्ञान से अवच्छिन्न ब्रह्म हैं। यहाँ ब्रह्म ढका हुआ आच्छादित या अवच्छिन्न हैं। जब कि अज्ञान अवच्छेदक हैं। ब्रह्म एक ही होने पर भी वह अनेक अज्ञानो से अवच्छिन्न होने से अनेक जीव रुप से या स्थावर जंगम पदार्थो के रुप में लगते हैं। इसलिए ब्रह्म की अनेकता या सीमितता लागू नहीं पडती हैं। क्योंकि सीमा हट जाने से अवच्छेदक अज्ञान दूर होने से मूल शुद्ध चैतन्य ही रहता हैं। इस तरह से भी ब्रह्म और जीव की वास्तविक एकता और फिर भी दिखती विभिन्नता योग्य रुप में संगत होती हैं। (२७०) अज्ञानविषयीभूतं चैतन्यमीश्वरः अज्ञानाश्रयीभूतं च जीव इति वाचस्पतिमिश्रः । अस्मिश्च पक्षे अज्ञाननानात्वाज्जीवनानात्वम् । प्रतिजीवं च प्रपञ्चभेदः । जीवस्यैवाज्ञानोपहिततया जगदुपादानत्वात् प्रत्यभिज्ञा चातिदृश्यात् ईश्वरस्य च स प्रपञ्चजीवाविद्याधिष्ठानत्वेन कारणत्वोपचारादिति अयमेव अवच्छेदवादः । (-वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरः भूमिका सिद्धान्तबिन्दु पृ-४७) (२७१) यथा घटाकाशो नाम न परमाकाशादन्यः, अथ च अन्य इव यावद् घटमनुवर्तते । न चासौ दुविवेचनः, तदुपाधेर्घटस्य विविक्तत्वात् । एवमनाद्यनिर्वचनीयाविद्योपाधानकल्पितो जीवः न वस्तुतः परमात्मनो भिद्यते, तदुपाध्युद्भवाभिभवाभ्यां च उद्भूत इव अभिभूत इव प्रतीयते । भामती-२.३.३. (२७२) स एव तु अविद्योपाधानभेदात् - घटकरकाद्याकाशवत् भेदेन प्रथते । (भामती-२.१.७) (२७३) औपाधिकत्वाच्च भेदस्य घटकरकाद्याकाशवत् विरुद्धधर्मसंसर्गस्य उपपत्तेः। (भामती-शां.भा. २.३.११)
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