________________
४०४
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
जीव अविद्याजन्य आवरणशक्ति से आवृत्त होकर, स्वरुपज्ञान को भूल जाता हैं। इसलिए ही ईश्वर के लिए कोई बंधन नहीं हैं और जीव को कर्मबंधनों से पीडित होना पडता हैं।
आभासवाद का प्रयोजन :- आत्मा से अतिरिक्त संपूर्ण जागतिक प्रपंच (वस्तुओं) की स्वरुप-निष्पत्ति आभास द्वारा ही संभवित हैं । अविद्या का व्यावहारिक प्रयोजन और जगत का सत्तालाभ (अर्थात् जगत् की व्यावहारिक सत्ता का लाभ) (२६०)आभास द्वारा ही सिद्ध हो सकता हैं। इसलिए आभास को आत्मज्योति भी कहा जाता हैं। आभास के बिना जडरुप अविद्या से जगत की स्थिति (२६१)असंभव हैं । इस प्रकार से आभासित वस्तु की आभास के बिना कहीं अन्यत्र (२६२)सत्ता ही नहीं हैं।
यह अविद्या ही हैं, कि जो निष्प्रपंच, निर्विकार एवं निर्गुण ब्रह्म को जगत् के कारणरुप में(२६३) आभासित करवाती हैं। श्रीआनंदगिरि ने (२६४)इस तथ्य का समर्थन अपनी टीका में किया हैं। इस तरह से श्रीसुरेश्वराचार्य का आभासवाद अद्वैततत्त्व की सिद्धि में परम सहायक बना हैं।
कल्पनावाद और आभासवाद :- श्रीगौडपादाचार्य ने कल्पनावाद के समान आभासवाद का (२६५)स्वीकार किया हैं। कल्पनावाद में दृश्यमान सभी पदार्थ कल्पनामात्र और अतात्त्विक हैं । इस तरह से आभासवाद में भी जगत् काल्पनिक होता हैं । नृसिंहतापनीयोपनिषद् में आभासवाद का वर्णन इस प्रकार से आया है कि, जीव और ईश्वर आभास के कारण माया और अविद्या का निर्माण करते हैं और तद्रुप(२६६) बन जाते हैं।
इस अनुसार से शुद्ध चैतन्य ही परमार्थ तत्त्व हैं। जीव और ईश्वर में अभेद संबंध, जीव का जीवगत स्वरुप, काल्पनिक हैं और उस कल्पना का मूल जागतिक माया हैं।
अवच्छेदवाद :- (२६७)ईश्वर, जगत्, जीव और ब्रह्म के संबंध को स्पष्ट करने के लिए श्रीवाचस्पति मिश्र ने (२६०) यत्प्रसादादविद्यादि सिध्यतीव दिवानिशम्। (बृ.उ.भा.वा. ४.३.७४) चिदाभासैकमात्रेण तमः सिद्धिर्न मातृतः। (बृ. उ. भा.वा.३.४.१०५) चैतन्यतदाभासाभ्यामज्ञानसिद्धिमुक्त्वामातृसिद्धिप्रकारममाह । (आनंदगिरि टीका) (२६१) ध्वान्तादिविषयान्तोऽर्थो जडत्वान्नात्मसिद्धिकृत् आत्मज्योतिरभावेऽतो नाभावमपि विन्दति । (बृ.उ. भा.वा. १.३.५९) (२६२) न च जाड्यातिरेकेण ह्यविद्या काचिदिष्यते- बृ.उ.भा.वा. १.४.२५६,३४१,३.३.४१. (२६३) न चाभासस्याभासिनोऽन्यत्र सत्त्वम् । आनन्दगिरिटीका १.४.५०८ (२६४) अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्म कारणमुच्यते । बृ.उ.भा.वा. १.४.३७१ अज्ञानस्याभासद्वारा कूटस्थस्यैक्ये तस्य कारणत्वमिष्टं स्वतस्तदयोगात् । (बृ. उ. भा. वा. १.४.३७१) (२६५) जात्याभासं चलाभासं वस्त्वाभासं तथैव च अजाचलमवस्तुत्वं विज्ञानं शान्तमद्वयम् । (गौ. का. ४.४५) कल्पयत्यात्मनात्मानं आत्मा देवः स्वमायया । स एव बुध्यते दैवान्, इति वेदान्तनिश्चयः
गौ.का. २.१२।। (२६६) जीवेशावभासेन करोति माया चाविद्या च स्वयमेव भवति (न.ता. उ. ३.९.) (२६७) नौंवी शताब्दी में श्रीवाचस्पति मिश्र नाम के प्रसिद्ध आचार्य मिथिला में हो गये थे। श्रीशंकराचार्य के शारीरिक भाष्य के उपर उन्हों ने "भामती" नामकी टीका लिखी हैं, जो अद्वैतवेदांत को समजने के लिए सोपान की भूमिका निभाती हैं। श्रीमंडनमिश्र ने ब्रह्मसिद्ध नाम के ग्रंथ में अनेक नये सिद्धांतो की चर्चा की हैं। उनकी विचारधाराओं से श्रीवाचस्पति मिश्र अधिक प्रभावित हुए ऐसा "भामती" टीका का अवलोकन करते हुए दिखाई देता हैं। भामतीटीका में अनेक स्थान पे श्रीमंडनमिश्र के विचारों का समर्थन किया हैं। जैसे कि, श्रीमंडनमिश्र ने आश्रय और विषय के रुप में अविद्या के दो भेद स्वीकार किये हैं। श्रीवाचस्पति मिश्र उसमें सहमत हैं। अविद्या के "तत्त्व-अग्रहण"
और "अन्यथाग्रहण" रुप दों भेद हैं। श्रीवाचस्पति मिश्र, श्रीमंडनमिश्र के शब्द और अज्ञान के संबंध में एवं परोक्षात्मक वृत्ति विषयक मत के साथ भी सहमत हैं। श्रीवाचस्पति मिश्र ने "ब्रह्मसिद्धि" के उपर ब्रह्मतत्त्व समीक्षा नामक टीका की रचना की थी, जो अब उपलब्ध नहीं होती हैं। श्रीवाचस्पति मिश्र की भामती टीका का अनुसरण अनेक आचार्यों ने किया हैं। जिसके प्रसिद्ध आचार्य श्रीअप्ययदीक्षित, श्रीप्रकाशानंद, श्रीरमानंद, श्रीअमलानंद इत्यादि आचार्य हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org