________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
४०३
हैं । परंतु जैसे सर्पगत रज्जु का ज्ञान हो जाता हैं, तब हम सर्प न कहते हुए रज्जु कहते हैं। उसी प्रकार से जब अविद्यात्मक आभास की निवृत्ति हो जाती हैं, तब सत्तात्मक जगत को ज्ञानात्मक एवं आनंदात्मक कहते हैं, यही स्थिति निर्विशेष एवं सविशेष ब्रह्म की हैं। जिसके कारण से जगत की प्रतीति (२५५)आभासात्मक हैं ।
श्रीसुरेश्वराचार्य ने आभासवाद के आधार पर जीव को ईश्वर के समान माना हैं। उनके मत में जीव का स्वरुप चिदाभास हैं। "चित्'' ब्रह्म हैं और जीव "चित्" का आभास है। चिदाभास की व्याख्या करते हुए कहा हैं कि, "चित्'' से विलक्षण होने पर भी "चित्" के समान भासमान चिदाभास (२५६) हैं। इसलिए ईश्वर और जीव दोनों शुद्ध चैतन्य का आभास हैं। आभासवाद के अनुसार अविद्या ही जीव एवं ईश्वर को उत्पन्न करती हैं । ब्रह्म स्वतः न तो इस जगत का कारण हैं या न तो नियन्ता हैं या न तो साक्षी हैं। ईश्वर ही अविद्या के संयोग से चैतन्यांश में जब आभासित होता हैं, तब जीव कहा जाता हैं। इस तरह से अद्वैत ब्रह्म, अविद्या के संयोग से जब भासित होता हैं तब जीव एवं ईश्वर कहा जाता हैं। उनके मत में जीव और ईश्वर के बीच वास्तव में कोई भेद नहीं हैं। श्रीमधुसूदन सरस्वती ने (२५७ सिद्धान्त बिंद में इसका समर्थन किया हैं। __ आभासवाद की विशेषतायें :- आभासवाद की विशेषतायें इस अनुसार से हैं - (१) ईश्वर और जीव दोनों को सोपाधिक सिद्ध करना । (२) ईश्वर और जीव का मिथ्यात्व निरुपण करना । (३) जीव और ईश्वर दोनों का ब्रह्म के साथ संबंध असत् प्रमाणित करना । अर्थात् असत् स्वीकार करना । क्योंकि, दोनों का ब्रह्म के साथ संबंध (वास्तविक) स्वीकार किया जाये तो संबंध उभयपक्ष सापेक्ष होने के कारण ब्रह्म और ईश्वर तथा ब्रह्म और जीव, इस प्रकार "द्वैत' मानने की आपत्ति आने से सिद्धांत की हानि होती हैं।
इसलिए दृश्यमान जीव, ईश्वर और ब्रह्म का संबंध आभास मात्र हैं। उस आभास का कारण अविद्या हैं। इस तरह से मिथ्यात्व का कारण आभास ही हैं, वह प्रमाणित होता हैं। आभासवाद के प्रणेता श्रीसुरेश्वराचार्य जीव और ईश्वर की उत्पत्ति में चार कारण मानते हैं । (१) अविद्या, (२)शुद्धचैतन्य का आभास, (३)शुद्धचैतन्य का पूर्णतः मायोपहित होना और (४)ईश्वर एवं जीव का कूटस्थ ब्रह्म से आभासित होना और दोनों का ब्रह्म के साथ अभेद संबंध होना।
जीव और ईश्वर में भेद :- उपर्युक्त विवेचन जीव-ईश्वर में अभेद संबंध का प्रतिपादन करता हैं, वहाँ दोनों में स्वतः व्यावहारिक(२५८) भेद भी बताया हैं। ईश्वर समस्त जगत के अंतर्यामी एवं साक्षी हैं और जीव जगत का कर्ता, भोक्ता और प्रमाता हैं । ईश्वर जहाँ माया से उपहित होता हैं, वहाँ जीव अविद्या से आविष्ट रहता हैं। ईश्वर का अहमत्व माया से बाधित नहीं होता हैं, इसलिए ही वह साक्षी एवं क्षेत्रज्ञ(२५९) कहा जाता हैं । परंतु
(२५५) यो भ्रान्तिदशायामपि प्रतिभाति, यदभावे भ्रान्तिरेव न स्यात् स एव सामान्यांशाधार इति चोच्यते । यो भ्रान्तिदशायां न भाति, यदभावे भ्रान्तिनिर्विशेषं नश्येत् स एव विशेषांशोधिष्ठानमिति चोच्यते । ( २५६) चिद्विलक्षणत्वे सति चितवत् भासमानत्वं चिदाभासत्वम् । (बृ.उ.भा.वा.४.३.१३२०) (२५७) अज्ञानस्य तु सर्वत्राभिन्नत्वात्तद्गतचिदाभासभेदाभावात् तदविविक्तसाक्षिचैतन्यस्य न कदाचिदपि भेदभानमिति ।(सिं.बि.-१-टीका) (२५८) एवमध्यासे सिद्धे एकस्यात्मनो जीवेश्वरादिव्यवस्था मानमेयादिप्रतिकर्म व्यवस्था चोपपद्यते । तथाहि - अज्ञानोपहित आत्मा अज्ञानतादात्म्यापन्नः स्वचिदाभासाविवेकादन्तर्यामी साक्षी ईश्वरः जगत्कारणमिति च कथ्यते, बुद्ध्युपहितश्च तत्तादात्म्यापन्नः स्वचिदाभासाविवेकाज्जीवः कर्ता भोक्ता प्रमातेति च कथ्यते इति वातिककारपादाः । (सिद्धांत बिन्दु -१-टीका) (२५९) परमात्मनोऽप्ययमन्तस्यक्षेत्रज्ञमविद्यया क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीत्येव सत्यपपद्यते । (तै. उ. भा. वा. पृ-१५४)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org