________________
४०२
षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
अधिष्ठान के (२५२)अभाव में संभवित नहीं हैं। परंतु एक बात भी निश्चित हैं कि, जगत की यह स्थिति सत्य नहीं हैं। जिस तरह से रज्जु में सर्प की स्थिति भ्रमात्मक हैं, उसी तरह से जगत भी असत्य और भ्रामक हैं । इसलिए उन्हों ने असत् प्रतीत होनेवाले जगत की व्याख्या आभासवाद के माध्यम से की हैं। ब्रह्म तो वस्तुतः अविकारी हैं और वह कूटस्थ होने के कारण उसमें इस जगत का अधिष्ठानत्व माया के संयोग से ही संभवित बनता हैं । एकमात्र ब्रह्म के सत्य होने के कारण जगत की स्थिति शुक्तिरजतवत्(२५३) आभासात्मक हैं । जैसे, शुक्तिरजत अपने अंश से सत्य न होकर आभास मात्र होता है, उस प्रकार से जगत की अभिव्यक्ति आभासमात्र होती हैं। ___ शंका :- क्या यह जगत् ब्रह्म से पृथक् हैं ? या नहीं ? यदि जगत की पृथक् स्थिति हो तो अद्वैत की हानि होती हैं। क्योंकि ब्रह्म और जगत् ये दो पदार्थ की सत्ता सिद्ध होती हैं। जगत की सत्ता तो प्रत्यक्षदृष्ट होने से उसकी सिद्धि के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं हैं और ब्रह्म की सत्ता तो श्रुति प्रमाण से सिद्ध हैं। इसलिए ब्रह्म और जगत् ये दो पदार्थ सिद्ध होते हैं।
समाधान :- श्री सुरेश्वराचार्य इस शंका का समाधान देते हुए कहते हैं कि, यह जगत अनात्मक नहीं हैं । आत्मप्रधान जगत होने के कारण ब्रह्मसत्तात्मक हैं। जगत की बाह्य प्रतीति मिथ्या और मोहमूलक हैं। इसलिए ही अज्ञान के कारण नानारुपात्मक जगत् २५४) दुर्बोध हैं । संसार की नानात्मक अभिव्यक्ति आभास के कारण हैं। मायोपहित ब्रह्म नानारुपों में व्यक्त होकर सत्यसदृश भासित होता हैं। ___ शंका :- रज्जु में सर्प या शुक्ति में रजत की प्रतीति तो सदृशता के कारण होती हैं। परन्तु ब्रह्म स्वरुप अधिष्ठान में जगत् की भ्रान्ति तो सर्वथा असंभव हैं। क्योंकि ब्रह्म और जगत में धर्म की विपरीतता को सिद्धांती स्वीकार करते हैं। ब्रह्म निर्विशेष हैं, जब कि जगत् सविशेष हैं। इसलिए दोनों में सर्मिता के अभाव में रज्जुसर्पवत् या शुक्तिरजतवत् भ्रान्तिजन्य आभास की प्रतीति असंभवित हैं।
समाधान :- श्रीसुरेश्वराचार्य इस शंका का समाधान देते हुए कहते हैं कि, निर्विशेष ब्रह्म में सविशेष जगत की आभासात्मक प्रतीति नीचे के कारणो से होती हैं।
(१) सत्य वस्तु के अनुभवजन्य संस्कार के कारण, (२) प्रमेय दोष के कारण, (३) प्रमाण दोष के कारण, (४) प्रमातृदोष के कारण (५) अधिष्ठान के विशेष ज्ञान और तत्सामान्यज्ञान के कारण।
यहाँ उदाहरण देते हैं कि, जिस तरह से रुपरहित आकाश में और सत्य वस्तुओ में अनुभवजन्य संस्कार से नीलत्व रुप का आभास होता हैं, उस तरह से निर्विशेष ब्रह्म में अविद्या के कारण सविशेष जगत की आभासात्मक प्रतीति होती हैं।
सामान्यतः वेदांती यह स्वीकार करते हैं कि, इस जगत का नानात्व (अनेकता) ब्रह्म के उपर अधिष्ठित हैं, जो सविशेष कहा जाता हैं । जगत का सद्रूपत्वधर्म ब्रह्म का सामान्य धर्म हैं। तथा चिन्मयत्व, आनंदमयत्व विशेषधर्म हैं। प्रथमतः द्रष्टा को सामान्यरुप की प्रतीति भ्रमात्मक होती हैं, परन्तु उस अवस्था में ब्रह्म के विशेषधर्म चिन्मयत्व एवं आनंदमयत्व की प्रतीति भ्रमदशा में होती नहीं हैं। यह सर्प हैं , रज्जु नहीं हैं, ऐसा ज्ञान भ्रान्ति दशा में होता हैं। क्योंकि कोई भी द्रष्टा ऐसा नहीं कहता हैं कि, यह रज्जु सर्प हैं, परंतु यह सर्प हैं, ऐसा ही कहता हैं। उसी तरह से हम ऐसा नहीं कहते कि, यह जगत् ज्ञानात्मक एवं आनंदमय हैं। उल्टा ऐसा कहते हैं कि यह जगत् दुःखात्मक
(२५२ ) परमार्थमनालिङ्य न दृष्टं वितथं क्वचित् । तस्माद्वा वितथं सर्वं परमार्थैकनिष्ठितम् । (तै.उ.भा.वा. ब्राह्मणवल्ली ६४) यत्प्रसादादविद्यादि सिध्यतीव दिवानिशम् (वही ४) (२५३) बृ. उ. भा. वा. १.४.१२८० ( २५४) नैष्कर्मसिद्धि -११-४४/४५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org